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श्रीप्रवचनसारटीका।
कार्योलादः क्षयो हेतोनियमालक्षणात्पृथक् । न तो नात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ॥ ५८ ॥
भावार्थ-जो जो कार्यका उत्पाद होता है वह नियमसे अपने उपादान कारणको क्षय करके होता है । यह नाश और उत्पाद अपने२ लक्षणकी अपेक्षा अलगर हैं परंतु जाति अर्थात् सत्तारूप द्रव्यकी अपेक्षा या प्रमेयपनेकी अपेक्षा वे दोनो भिन्न नहीं हैं-एक रूपका रूपान्तर हुआ है । यदि इनको एक दूसरेकी अपेक्षा विना खतंत्र माने तो ये उत्पाद व्यय ध्रौव्य तीनो ही आकाशके पुप्प समान हो जायेंगे अर्थात् कुछ भी नहीं रहेंगे । इसीके बतानेको लौकिक दृष्टान्त देते हैं
घटमोलि सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोहमाध्यस्थ्य जनो याति सहेतुकम् ॥ ५९ ॥
भावार्थ-जैसे कोई सुनार सुवर्णके घटको तोडकर उससे मौलि या मुकुट बना रहा था उस समय उसके पास तीन आदमी तीन अभिप्रायके आए । एक तो सुवर्णका घट लेना चाहता था वह इस सुवर्णके घटको नष्ट होते देखकर मनमे शोक करता है। दूसरा सुवर्णका मौलि लेना चाहता था वह अपनी इच्छानुकूल मौलिको बनते देखकर हर्ष करता है । तीसरा मात्र सुवर्ण चाहता था वह घटका नाश होते न खेद करता न मौलिके बनते हुए हर्ष करता किन्तु माध्यस्थ या उदासीन रहता है क्योकि उसको तो सुवर्ण मात्र चाहिये वह चाहे जिस अवस्थामे मिले । इस दृष्टांतसे आचायेने यह दिखलाया कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य परस्पर अपेक्षा सहित हैं, स्वतंत्र अलग२ नहीं पाए जा सक्ते हैं। तथा स्वरूपके लक्ष