Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 357
________________ .६६ श्रीप्रवचनसारटोका । परभावको न ग्रहण करते न छोड़ते न करते अथवा जैसे लोहेका गोला उपादान रूप से अग्निको ग्रहण करता छोड़ता व करता नहीं है तैसे यह आत्मा उपादान रूपसे पुद्गलमई कमौको न तो ग्रहण करता है न छोड़ता है न करता है। इससे यह कहा गया कि जैसे सिद्ध भगवान पुद्गलके मध्य में रहते हुए भी परद्रव्यके ग्रहण वजन व करनेके व्यापारसे रहित हैं तैसे ही शुद्ध निश्चयसे संसारी जीव भी ग्रहण त्यागादि नहीं करते हैं । A भावार्थ - हरएक पदार्थ उपादान रूपसे अपने ही स्वभावमें परिणामन कर सक्ता है परस्वभाव कभी नही हो सक्ता है । जैसे गेहूं स्वयं आटा, लोई, रोटीरूप परिणमन कर सक्ता है किन्तु चावलरूप नहीं हो सक्ता व सुवर्ण स्वयं सुवर्णके आभूषण या पात्रोमें परिणमन करसक्ता है, लोहेक पात्रोमे नहीं तैसे पुद्गल पुगoth स्वभावमे व जीव जीवके स्वभावमे परिणमन करता है । पुद्गुल कभी जीवकी दशामें व जीव कभी पगलकी दशामे नही हो सक्ता ! यद्यपि जीव पुद्गल इस लोकमे एक ही क्षेत्रमे विराजमान है तौमी जीव अपने स्वभाव में परिणमता हुआ अपने ही परिणामको करता है, उसे ही ग्रहण करता है व पूर्व परिणामको त्यागता है, कभी पुद्गलीक स्वभावको करता नही, ग्रहता नही, छोडता नही, शुद्ध निश्चयनयसे जीव अपनी शुद्ध परिणतिको ही करता है, नवीनको जब ग्रहण करता है तब पुरानीको त्यागता है । अशुद्ध निश्वयनयसे संसारी जीव पौगलीक कर्मोंके निमित्तसे कभी राग परिणतिको करके उसे छोड़ द्वेप परिणतिको ग्रहण करता है । कभी रागद्वेष परिणतिको छोड़ वीतराग परिणतिको ग्रहण करता है। " 1 1

Loading...

Page Navigation
1 ... 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420