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श्रीप्रवचनसारटोका। भावार्थ-इस गाथामें आचार्य सत्ता और द्रव्यका ध्रुव संबंध है इस बातको स्पष्ट करते हैं। सत्ता गुण है, द्रव्य गुणी है। इस लिये संज्ञादिकी अपेक्षा गुण गुणीमे भेद होते हुए भी प्रदेशोकी अपेक्षा भेद नहीं है । द्रव्य गुणका आधार है । जहां द्रव्य है वहां गुण है। यदि कोई तर्क करे कि सत्तारूप द्रव्य नहीं है तब यह बडा भारी दोष आवेगा कि द्रव्य असत् होकर द्रव्य ही नहीं रहसक्ता क्योकि जिसमें अस्तित्त्व नहीं वह कोई वस्तु नहीं हो सक्ती है। ऐसा माननेसे द्रव्यका नाश हो जायगा । और यदि सत्ता और द्रव्य दो भिन्न २ माने जावें तो भी दोनोका अभाव हो जावेगा, क्योकि द्रव्यके विना सत्ता कहां रहेगी और सत्ता विना द्रव्य कैसे ठहर सकेगा । सत्तारूप द्रव्य है इसीसे वह ध्रुव रहता है। इसलिये यही निश्चित है कि द्रव्य स्वय सत्तारूप है।
यदि बौद्धमतके अनुसार द्रव्यको क्षणभर ठहरनेवाला माना जावे ध्रुव न माना जावे तो उस द्रव्यसे कार्य नही होसक्ता । तब फिर यह जीव संसारी है-दुखी है। इसको अपना संसार मेटकर , मुक्त होना चाहिये यह उपदेश नहीं बन सका । जो जीव संसारी है वही जीव मुक्त होता है। जीवकी सत्ता ध्रुव माननेसे ही संसार और मुक्ति अवस्था बन सक्ती है। . जैसा कि स्वामी समंतभद्राचार्यने आप्तमीमांसामें कहा है:. यद्यसत्सर्वथा कार्य तन्मानि खपुष्पवत् ।
मोपादान नियामो भून्माऽऽश्वास: कार्य जन्मनि ॥ ४२ ॥ . भावार्थ-यदि द्रव्यकी सत्ता ध्रुव न मानी जावे और द्रव्यको, सर्वथा असत् माना जावे तो उस द्रव्यसे कोई काम नहीं होसक्ता।