Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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' द्वितीय खंड। - [३०१ वर्गणासे तथा तैजस शरीर नामकर्मके उदयसे तैनस शरीर तैनात वर्पणासे और कार्मण शरीर नामकर्मके उदयसे कार्मण शरीर कार्मण वर्गणासे बन जाता है- इन शरीरोंका उपादान और निमित्त कारण पुद्गल ही है, आत्मा नहीं है। इस तरह आत्माको शरीर और दव्यकर्म तथा रागादि कर्मकृत विकारोसे भिन्न अनुभव करके साम्यभावका लाभ करना चाहिये । श्री अमृतचंद्रस्वामी समयसारकलशमें कहते है
अत्यन्त भाव यत्या दिरतमविरत कर्मणरतत्क्राच । प्रसष्ट नाठ येत्या प्रयनम खलाशानमचेतनायाः । पूर्ण कृत्वा सभार स्वासपरिगत ज्ञानसचेतना ग्वा । सानन्द नाट्य-त. प्रशनरसमितः सर्वकाल पिरन्तु ॥४०-९॥
भावार्थ-हे भव्य जीवो ! अब तुम इस समयसे द्रव्य कर्म और उनके फल स्वरूप नौकर्म और भाव कर्मसे अत्यन्त विरक्त भावकी निरंतर भावना करके तथा सर्व अज्ञान चेतनाके नाशको अच्छी तरह नचाकरके तथा अपने निजरससे भरे हुए स्वभावको पूर्ण करके और अपनी ज्ञानचेतनाको आनन्द सहित नचाते हुए शात रसका सर्वकाल पान करो। मैं सिद्ध शुद्ध ज्ञानानदमय है। इस भावनामें दृढ़ हो आनन्द लाभ करो ॥ ८२ ॥
इस तरह पुद्गल स्कंधोंके बन्धके व्याख्यानकी मुख्यतासे दूसरे स्थलमें पांच गाथाए पूर्ण हुई। इस तरह " अपदेसो परमाणू " इत्यादि ९ गाथाओसे परमाणु और स्कंध भेदको रखनेवाले पुद्गलोके पिंड बननेके व्याख्यानकी मुख्यतासे दूसरा विशेष अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ।

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