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• द्वितीय खंड।
[३१ पाए जाते हैं । यही द्रव्यका स्वभाव है। जैसे एक वस्त्रमें जहां उस वस्त्रकी सत्ता है वहीं उस वस्त्रकी गुण पर्यायें हैं वहीं उसका उत्पाद व्यय ध्रौव्य है । इसका खुलासा यह है कि वस्त्रमें स्पर्श, रस, गध, वर्ण हैं वे वस्त्रके गुण हैं उनमें समय समय जो परिणमन या वदलाव होरहा है वे ही समय समयकी वस्त्रकी पर्यायें हैं । जव गुणोकी पिछले समयकी पर्याय नष्ट होती है तब ही इस वर्तमान समयकी पर्याय पैदा होती है यह उत्पाद व्यय है। ध्रुवपना गुणोका व उसके समुदाय द्रव्यका स्थिर है ही। एक वस्त्र जो दो चार मास पीछे जीर्ण दीखता है सो एकदम जीर्ण नहीं हुआ वह हर समयमें पुराना पडता जाता है । जब बहुत पुराना होजाता है तब ही हम स्थूल दृष्टिवालोको मालूम पड़ता है । यहां वस्त्रको भी पुद्गल स्कध रूप द्रव्य ध्यानमे लेना चाहिये क्योकि यही वस्त्र अग्निका संवध पाकर राखकी पर्यायमें पलट सक्ता है तब भी पुद्गल द्रव्यकी सत्ताका नाश नहीं होता है । एक ससारी जीव सशरीर था वह जव एक शरीरको त्यागता है तब ही मनुष्य आयुका उदय समाप्त होकर यदि उसे देवगतिमें जाना हो तो देव आयुका उदय प्रारम्भ होनाता है। उसकी विग्रह गतिमें देवायुका उदय है । उसकी मनुष्य अवस्थाका व्यय विग्रह गतिका उत्पाद और जीव द्रव्य अपेक्षा ध्रुवपना एक कालमें मौजूद है तथा जीवके ज्ञानादि गुणोका सदभाव दोनो अवस्थाओमें रहते हुए भी इन गुणोका परिणमन बदला गया जो परिणमन मनुष्य देहमें था वह परिणमन विग्रह गतिमे नहीं है । विग्रह गतिमे विग्रहगतिके योग्य परिणमन है। इस तरह हरएक