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२८ ] श्रीप्रवचनसारटोका । जीवकी अपेक्षा अपने केवलज्ञान आदि गुण तथा अतिम शरीरसे कुछ कम आकाररूप अपनी पर्याय तथा सिद्ध गतिपना, अतीन्द्रियपना, कायरहितपना, योगरहितपना, वेदरहितपना इत्यादि नाना प्रकारकी अपनी अवस्थाओंके साथ और (उप्पादव्वयधुवत्तेहि) उत्पाद व्यय धौव्यपने के साथ अर्थान सिद्ध जीवकी अपेक्षा शुद्ध आत्माकी प्राप्ति रूप मोक्ष पर्यायका उत्पाद, रागद्वेषाटि विकल्पोंसे रहित परमसमाधि रूप मोक्षमार्गकी पर्यायका व्यय तथा मोक्षमार्ग और मोक्षके आधारभूत चले आनेवाले द्रव्यपनेका लक्षणरूप ध्रौव्यपना इन तीन प्रकार उत्पाद व्यय ध्रौव्यके साथ (दव्यस्स ) द्रव्यका अर्थात् मुक्तात्मा रूपी द्रव्यका (सव्वकाल) सर्व कालोमे अर्थात् सदा ही ( सव्भावो ) शुद्ध अस्तित्त्व है या उसकी शुद्ध सत्ता है (हि') सो ही निश्चय करके (सहावो ) उसका निज भाव या निन रूप है, क्योकि मुक्तात्मा इनके साथ अभिन्न हैं इसका हेतु यह है कि गुण पर्यायोके अस्तित्त्वसे तथा उत्पाद व्यय प्रौव्यपनेके अस्तित्त्वसे ही शुद्ध आत्माके द्रव्यका अस्तित्त्व साधा जाता है और शुद्ध आत्माके द्रव्यके अस्तित्त्वसे गुण पर्यायोंका और उत्पाद व्यय ध्रौव्यपनेका अस्तित्त्व साधा जाता है । किस तरह 'परस्पर साधा जाता है सो बताते हैं जैसे सुवर्णके पीतपना आदि गुण तथा कुडल आदि पर्यायोका जो सुवर्णके द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा सुवर्णसे भिन्न नहीं है, जो अस्तित्त्व है वही सुवर्णका अपना अस्तित्त्व है या सद्भाव है । तैसे ही मुक्तात्माके केवलज्ञान आदि गुण और अतिम शरीरसे कुछ कम आकार आदि पर्यायोंका जो मुक्तात्माके द्रव्य क्षेत्र काल भावोकी अपेक्षा परमात्मा द्रव्यसे भिन्न