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श्रीप्रवचनसारटीका !
कथंचित या स्यात अनित्य है । कथचित् या स्यात्का अर्थ किसी अपेक्षासे है । अनेक विरोधी स्वभावोको एक द्रव्यमे समझने समआनेके लिये ही जैन दर्शनमे स्याद्वादका विधान किया गया है । किसी अपेक्षासे किसी स्वभावको जो कहे वह स्याद्वाद है ।
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इस तरह सतु, उत्पाद व्यय ध्रौव्य तथा गुणपर्यायवान ये तीनो ही लक्षण द्रव्यके वरूपको अच्छी तरह बता देते है । श्री उमास्वामी महाराजने भी तत्त्वार्थमूत्रमे द्रव्यके तीन लक्षण इन सूत्रो कहे है
सत् द्रव्यलक्षणं ॥२९॥ उत्पादव्ययधौव्ययुक्त सत् ॥ ३० ॥ गुणपर्ययवव्यम् || ३८ || अ० ॥ ५ ॥
हम यदि सिद्धावस्था होते समय इन लक्षणोको देखें तब हम समझेंगे कि सिद्धात्मा सत् है, यह वही है जो पहले असिद्ध या कर्म सहित थे । इस समय सिद्ध अवस्थाका उत्पाद हुआ है, अर्हन्त अवस्थाका व्यय हुआ है तथा जीवपना धौव्य है तथा अर्हन्त आत्मा जो गुण थे वे ही गुण सिद्धात्मामे हैं, कर्मबंधके छूटनेसे उनकी पर्याय पलट गई है। पहले चार अघातिया कर्मोंसे अव्याबाधत्त्व, सूक्ष्मत्त्व, अवगाहत्त्व व अगुरुलघुत्त्व प्रगट न थे, उन चारोके क्षय होते ही ये चार स्वभाव प्रकाशमे आगए ।
गुण और पर्यायें द्रव्यके ही प्रदेगोमें पाई जाती हैं इसलिये वे अभिन्न है परन्तु समझने समझानेके लिये उनका भेद करके मनन किया जाता है। सज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनकी अपेक्षा गुण और द्रव्यका भेद है, प्रदेशकी अपेक्षा नही है । जैसे जीव द्रव्य और ज्ञान गुण । दोनोकी संज्ञा अलग २ है । ज्ञान गुणकी संख्या