Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2 Author(s): Hemchandracharya, Hemchandrasuri Acharya Publisher: Atmaram Jain Model School View full book textPage 8
________________ [ * ] मुनि जी का यह प्रयत्न अत्यन्त उपकारक सिद्ध होगा। मुनि श्री ने हेमचन्द्राचार्य के अष्टम अध्याय के सूत्र एवं वृत्ति पर प्रथम संस्कृत में बाल मनोरमा टीका लिखी है। इस संस्कृत टोका की भाषा बड़ी सरल और व्याख्या-शैली बोधगम्य है । संस्कृत विद्यार्थी प्रध्यापक की सहायता के बिना भी काफी कुछ समझ सकता है। फिर आत्म-गुण- प्रकाशिका हिन्दी व्याख्या ने तो प्राकृत भाषा का ज्ञान द्वार ही उन्मुक्त कर दिया है। हिन्दी विवेचन पढ़ कर और मूल सूत्र कंठस्थ करके विद्यार्थी प्राकृत ज्ञान प्राप्त कर सकता है। एक प्रकार से प्राकृत की संस्कृत-बंधन से मुक्त कर स्वावलम्बी बना दिया है। प्राकृत भाषा के ग्रव्ययन एवं प्रचार को दृष्टि से यह एक ऐतिहासिक प्रयत्न हुग्रा है। निश्चित ही व्याख्याकार श्री ज्ञान मुनि जी ने अथक श्रम किया है। उनका दीर्घकालीन अध्यवसाय और श्रम प्राकृत प्रचार को प्रोत्साहित करेगा, ऐसा विश्वास किया जा सकता है । पुस्तक की छपाई, साफ शुद्ध है । जिल्द एवं प्लास्टिक कवरयुक्त पुस्तक का मूल्य भी उपयुक्त है। संस्कृत एवं प्राकृत विद्यार्थियों तथा पुस्तकालयों के लिए पुस्तक तुरन्त संग्रह करने योग्य है । भारत सरकार के शिक्षा विभाग को भी इस प्राकृत व्याकरण को राष्ट्र भाषा व्याख्या प्रस्तुत करने के कारण प्रोत्साहित और पुरस्कृत करना चाहिए । श्री चन्द्र जी सुराणा, 'अमर भारती' यागरा अगस्त १९७५ ९. कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के 'सिद्ध हैमश्वानुशासन' नामक व्याकरण ग्रंथ का यह एक अध्याय है जिसमें प्राकृत भाषा के व्याकरण-सम्मत नियमोपनियमों का उल्लेख किया गया है । साहित्य-संसार में प्राज यही एक अध्याय प्राकृत व्याकरण के नाम से प्रसिद्ध है। प्रस्तुत व्याकरण में कुल मिलाकर ६७१ सूत्र हैं, जिनकी संस्कृत तथा हिन्दो व्याख्या श्री ज्ञानमुनि जी ने लिखी है। यारम्भ में डा० ऐल० एम० जोशी तथा प्रोफेसर ए० एन० सिन्हा की संयुक्त प्रस्तावना है, जिसमें उन्होंने विस्तारपूर्वक विभिन्न प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति, विकास, महत्ता एवं उत्तर कालीन देशी भाषाओं पर पारम्परिक प्रभाव का इतिहास दिया है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने तथा मार्कण्डेय, वनिक प्रादि ने भी “प्रकृतिः संस्कृतम्” के द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि संस्कृत ही प्राकृत भाषाओं को प्रकृति है। संस्कृत ही प्राकृत भाषाम का उद्गम स्रोत है। प्राकृत भाषाओं के विषय में इन दिनों जो वैज्ञानिक अनुसन्धान कार्य हुए हैं, उनको देखते हुए यह प्रस्थापना पुरानी पड़ गई है। संस्कृत के अनुसरण पर व्याकरण बन जाने से और व्याकरण के नियमों में कस जाने से प्राकृत को संस्कृत की प्रकृति मान लिया गया और उसे एक साहित्यिक रूप भी मिल गया। लेकिन वस्तुतः प्राकृत लोक व्याहार की प्रवाह-शील भाषा रही है और जनपद की बोलियों में तथा वर्तमान भाषाओं में इसके रूपों का दर्शन किया जा सकता है, इस दृष्टि से विद्वानद्वय की प्रस्तावना बड़ी उपयोगी है। अन्त में पाया शीर्षक के अन्तर्गत सूची दी गई है, जिनके संस्कृत रूप भी htoos में सामने दे दिए गए हैं।Page Navigation
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