Book Title: Prakrit Vyakarana
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 46
________________ (i) सो देवेण (3/1)/ देवस्स (6/1) तुल्लो अत्थि (वह देव के तुल्य/ समान है।) (ii) धम्मेण (3/1/)/ धम्मस्स (6/1) समाणो मित्तो ण अत्थि (धर्म के समान मित्र नहीं है।) 8. शरीर के विकृत अंग को बताने के लिए तृतीया विभक्ति होती है। (i) सो पाएण खंजो अत्थि (वह पैर से लंगडा है।) ' (ii) सो कण्णेण बहिरो अस्थि (वह कान से बहरा है।) (ii) सो णेत्तेण काणो अत्थि (वह नेत्र से काणा है।) 9. क्रियाविशेषण शब्दों में भी तृतीया का प्रयोग होता है। जैसे - नरिंदो सुहेण जीवइ/जीवए/आदि (राजा सुखपूर्वकजीता है।) 10. कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता है। जैसे -- तेणं कालेणं, तेण समएणं (उस काल में) (उस समय में) 11. किं, कजं, अत्थो - इसी प्रकार प्रयोजन प्रकट करने वाले शब्दों के योग में आवश्यक वस्तु को तृतीया में रखा जाता है। जैसे - (i) मूढेण मित्तेण किं ? (मूर्ख मित्र से क्या लाभ है ?) (ii) ईसराणं तिणेण वि कजं हवइ (धनी लोगों का कार्य तिनके से भी हो जाता है।) को अत्थो तेण पुत्तेण जो ण विउसो ण धम्मिओ (उस पुत्र से क्या प्रयोजन जो न विद्वान है और न धार्मिक है।) प्राकृतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय (37) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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