Book Title: Prakrit Vyakarana Author(s): Kamalchand Sogani Publisher: Apbhramsa Sahitya AcademyPage 59
________________ अतः कर्मवाच्य में कर्ता में तृतीया और कर्म और कृदन्त में सप्तमी होती है। कर्तृवाच्य में कर्ता और कृदन्त में सप्तमी होती है। 3. द्वितीया और तृतीया विभक्ति के स्थान में सप्तमी भी हो जाती है। जैसे - (i) अहं नयरे न जामि (मैं नगर को > में नहीं जाता हूँ।) (द्वितीया के स्थान पर सप्तमी) (ii) तेसु तीसु पुहई अलंकिआ। (उन तीनों के द्वारा पृथ्वी अलंकृत हुई।) (तृतीया के स्थान पर सप्तमी) पंचमी के स्थान पर कभी कभी सप्तमी पाई जाती है। जैसे - अन्तेउरे रमिउं राया आगओ (अन्तःपुर से रमण करके राजा आ गया।) (यहाँ पंचमी के स्थान पर सप्तमी हुई।) 5. फेंकने अर्थ की क्रियाओं के साथ सप्तमी होती है। जैसे - सो बालं जले/जलम्मि खिवइ (वह बालक को जल में फेंकता है।) 4 प्रयोग वाक्य 1. विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं (अपपाहुड 30) जिस योगी का चित्त विषयों से उदासीन है, वह योगी ही आत्मा को जानता है। (नियम 4) आगमों को जानकर भी तुम्हारे लिए शील (चारित्र) ही उत्तम कहा गया है । (नियम 3) 2. वेदेऊण सुदेसु य तेव सुयं उत्तमं सीलं। (अष्टपाहुड 34) 3. संभासिऊण भिच्चे, वज्जावत्तं च धणुवरं घेत्तुं । घणपीइसंपउत्तो, पउमसयासं समल्लीणो ॥ (दशरहपव्वजा 111) भृत्य के साथ बातचीत करके और वज्रावर्त धनुष को लेकर अत्यन्त प्रेमयुक्त व लीन राम के पास (गया)। (नियम 3) पिता, बंधुजन तथा सैंकड़ों सामन्तों से घिरे हुए रहे। (नियम 3) 4. पियरेण बन्धवेहि य, सामन्तसएसु परिमिया सन्ता। (दशरहपब्वजा 112) (50) प्राकतव्याकरण: सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96