Book Title: Prakrit Vidya 2001 07 Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain Publisher: Kundkund Bharti Trust View full book textPage 7
________________ अहिंसा के अवतार - पंचपरमेष्ठी -डॉ० सुदीप जैन श्रमण-परम्परा के मूलसंघ का आदिग्रन्थ 'छक्खंडागमसुत्तं' है। इसके मंगलाचरण के रूप में पंचपरमेष्ठी को शौरसेनीप्राकृतभाषानिबद्ध निम्नलिखित गाथासूत्र में नमस्कार किया गया है “णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोगे सव्व-साहूणं ।।" - अर्थ :- अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार एवं लोक के समस्त साधुओं को नमस्कार हो। इसमें अंतिम चरण में आगत 'लोगे सव्व' पद 'अन्त्यदीपक' हैं, अर्थात् इनका प्रयोग प्रत्येक के साथ समझना चाहिए। उदाहरणस्वरूप लोक के सभी अरिहंतों को नमस्कार हो, लोक के सभी सिद्धों को नमस्कार हो.......' इत्यादि। ___उपर्युक्त गाथासूत्र-बद्ध मंगलाचरण को जैन-परम्परा में णमोकार महामंत्र' के नाम से जाना जाता है, तथा व्यक्ति-विशेष से सम्बद्ध न होने से तथा अरिहंतादि पूज्यपदों की परम्परा अनादि-अनिधन स्वीकृत होने से इस महामंत्र को अनादि-अनिधन माना गया है। प्रथम-प्रयोग की दृष्टि यद्यपि इस महामंत्र की प्रथम दो पंक्तियाँ किंचित्परिवर्तित रूप में सम्राट् खारवेल के ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी के ऐतिहासिक हाथीगुम्फा-शिलालेख के प्रारंभ में निम्नानुसार पायी जाती हैं :- "णमो अरिहंतानं, णमो सवसिधानं" ___ इनमें ओड्रमागधी प्राकृत के प्रभाव से आदि-'णकार' यथावत् रहा है, किन्तु अन्त्य-'णकार' का ‘नकार' हो गया है। ___ अस्तु, इसका प्राचीनतम परिपूर्ण लिखितरूप 'छक्खंडागमसुत्त' के मंगलाचरण का है, जो कि विशुद्ध शौरसेनीप्राकृत में निबद्ध है। इस महामंत्र में जिन पंच-परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है, उसका अचिन्त्यप्रभाव बताया गया है प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001 105Page Navigation
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