Book Title: Prakrit Sahitya ki Roop Rekha Author(s): Tara Daga Publisher: Prakrit Bharti AcademyPage 15
________________ के विकास के दो चरण हैं - (1) प्रथम स्तरीय प्राकृत (2) द्वितीय स्तरीय प्राकृत प्रथम स्तरीय प्राकृत वैदिक युग से महावीर युग अर्थात् ई.पू. 1600 से ई.पू. 600 तक के समय की जनभाषा के रूप में जो प्राकृत विद्यमान थी, उसे प्रथम स्तरीय प्राकृत कहा गया है। ध्वन्यात्मक व व्याकरणात्मक सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्राकृत भाषा लम्बे समय तक जन-जीवन से जुड़ी रही और बोल-चाल की भाषा बनी रही। इस बोल-चाल की भाषा का साहित्य उपलब्ध नहीं है । इसके रूपों की झलक वैदिक (छांदस ) साहित्य में प्राप्त I होती है। प्रथम स्तर की यह प्राकृत भाषा स्वर, व्यंजन आदि के उच्चारण वैदिक (छांदस) भाषा के अनुरूप ही थी । यहाँ तक कि छांदस साहित्य में तो महावीर युग के प्रचलित प्राकृत - व्याकरण के तत्त्वों की झलक भी देखने को मिल जाती है। अतः जनभाषा के रूप में प्रचलित प्रथम स्तरीय प्राकृत के अध्ययन व स्वरूप की जानकारी हेतु यह आवश्यक है कि वैदिक युग से महावीर युग तक के वैदिक साहित्य में प्रयुक्त हुए प्राकृत के तत्त्वों का गहराई से अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाए। द्वितीय स्तरीय प्राकृत ई.पू. 600 से ई. सन् 1200 तक जिस प्राकृत भाषा में साहित्य निबद्ध हुआ, वह द्वितीय स्तरीय प्राकृत मानी गई है। वैदिक युग में जो प्राकृत भाषाएँ जनभाषाओं के रूप में विद्यमान थीं, उनमें परवर्ती काल में अनेक परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों के कारण ये भाषाएँ रूपान्तरित होती गई और इस प्रकार द्वितीय स्तरीय विभिन्न प्राकृतों का जन्म हुआ । इन्हें तीन युगों में विभक्त किया गया है । प्रथम युगीन प्राकृत (आदि युग) ई. पूर्व 600 से 200 ई. तक द्वितीय युगीन प्राकृत (मध्य युग ) ई. सन् 200 से 600 ई. तक तृतीय युगीन प्राकृत (अपभ्रंश युग) 600 ई. से 1200 ई. तकPage Navigation
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