Book Title: Prakrit Sahitya ki Roop Rekha
Author(s): Tara Daga
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 13
________________ प्राकृत का स्वरूप एवं विकास मनुष्य के विकास के साथ-साथ भाषा भी विकसित होती चली गई। सृष्टि के प्रारम्भ में भले ही एक ही भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम रही होगी, किन्तु स्थान व कालभेद के कारण एक भाषा से अनेक भाषाओं व उपभाषाओं का जन्म होता गया, जो प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती, मराठी, बंगला आदि रूपों में हमारे सामने विद्यमान हैं। भाषा वैज्ञानिकों ने प्राकृत भाषा का सम्बंध भारतीय आर्यशाखा परिवार से माना है। विद्वानों के द्वारा भारतीय आर्य शाखा परिवार की भाषाओं के विकास को तीन युगों में विभाजित किया गया है। 1. प्राचीन भारतीय आर्य भाषाकाल ( ई.पू. 1600 से ई.पू. 600 तक) 2. मध्यकालीन आर्य भाषाकाल (ई.पू. 600 से 1000 ई. तक) 3. आधुनिक आर्य भाषाकाल (1000 ई. से वर्तमान समय तक) प्राकृत भाषा का इन तीनों ही कालों से किसी न किसी रूप में संबंध बना रहा है। वैदिक भाषा (छांदस) प्राचीन आर्यभाषा है, जिसका विकास तत्कालीन लोकभाषा से हुआ है। प्राकृत भाषा का वैदिक भाषा के साथ गहरा सम्बन्ध है । भाषाविदों ने प्राकृत एवं वैदिक भाषा में ध्वनि-तत्त्व एवं विकास प्रक्रिया की दृष्टि से कई समानताएँ परिलक्षित की हैं। अतः प्राकृत भाषा के प्रारंभिक स्वरूप को समझने के लिए वैदिक भाषा का गहन अध्ययन आवश्यक है। देश, काल एवं व्यक्तिगत उच्चारण के भेद के कारण जनभाषा का स्वरूप सदा परिवर्तित होता रहता है। समय के साथ-साथ विकसित हुई इस जनभाषा प्राकृत को भगवान् बुद्ध एवं भगवान् महावीर ने जनता के सांस्कृतिक उत्थान के लिए अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। फलस्वरूप मध्यकाल में दार्शनिक, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक विविधताओं से परिपूर्ण आगमिक एवं त्रिपिटक साहित्य उपलब्ध हुआ। इस युग में प्राकृत जनभाषा

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