Book Title: Pragnapanopangamsutram Part 01
Author(s): Malaygiri,
Publisher: Agamoday Samiti
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तेणदेणं गो ! एवं वुच्चइ-नेरइया णो सवे समकम्मा । नेरइया णं भंते! सवे समवन्ना?, गो०! णो इणढे समढे, से केपटे भंते ! नेरइया नो सत्वे समवन्ना?, गो०। रइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पुरोववनगा य पच्छोववनगा य, तत्थ
जे ते प्रबोववन्नगा ते णं विसुद्धवनतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववनगा ते णं अविसुद्धवनतरागा, से एएणटेणं गो०! एवं वच्चा-नेरइया नो सन्चे समवन्ना । एवं जहेव वनेण भणिया तहेव लेसासु विसुद्धलेसतरागा अविसुद्धलेसतरागा य भाणियत्वा । नेरइया णं भंते ! सबे समवेदणा, गो० नो इणहे समढे, से केण एवं वुच्चति नेरइया णो सवे समवेयणा, गो! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सन्निभूया य असन्निभूया य, तत्थ णं जे ते सनिभूता ते णं महावेदणतरागा, तत्थ णजे ते असन्निभूता ते णं अप्पवेदणतरागा, से तेणटेणं गो०! एवं वुच्चइ-नेरइया नो सबै समवेयणा (सूत्र २०७)
समशब्दः पूर्वार्द्ध प्रत्येकमपि सम्बध्यते, उत्तरार्द्ध प्रतिपदं साक्षात्सम्बन्धित एवास्ति, ततोऽयमर्थ:-प्रथमोऽधिकारः सर्वे समाहाराः सर्वे समशरीराः सर्वे समोच्छासा इति प्रश्नोपलक्षितः, द्वितीयः समकाण इति, तृतीयः | समवर्णा इति. चतुर्थः समलेश्याका इति, पञ्चमः समवेदनाका इति, षष्ठः समक्रिया इति, सप्तमः समायुष इति । अथ लेश्यापरिणामविशेषाधिकारे कथममीषामर्थानामुपन्यासोपपत्तिः?, उच्यते, अनन्तरप्रयोगपदे उक्तं-'कतिविहेणं भंते! गइप्पवाए इति (पं0)?, गोयमा! पंचविहे०, पयोगगई ततगई बंधणछेदणगई उबवायगई विहायोगई, तत्थ जा सा उवबायगई सा तिविहा-खित्तोववायगई भवोववायगई नोभवोववायगई, तत्थ भवोववायगई चउचिहा
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