Book Title: Pradyumna Charit Author(s): Sadharu Kavi, Chainsukhdas Nyayatirth Publisher: Kesharlal Bakshi Jaipur View full book textPage 4
________________ प्राक्कथन हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ कब से होता है, यह उसके इतिहास का सबसे अधिक विधावपूर्ण विषय रहा है। पहले कुछ विद्वानों का मत था कि पुउ या पुष्य हिन्बो का प्रादि कवि था जो प्राठवीं या नवीं शती में हुआ था किन्तु उसकी कोई रचना प्राप्त नहीं थी। इधर घपम्र के एक सर्व श्रेष्ठ कवि पुष्पदन्त को रचनामों के प्रकाश में पाने पर अनुमान किया जाने लगा है कि पुष्य नाम के जिस कधि का हिन्दी के it करके उल्लस होता रहा है, यह कदाचित पुष्पदन्त था । किंतु पिछले ५०-६. वर्षों की खोज में व्यवन्त हो नहीं अपभ्रश के चार दर्जन से अधिक कवियों की रचनाए प्रकाश में पाई हैं ! प्रश्न यह उठता है कि इस अपभ्रंश साहित्य को हिन्दी साहित्य से पृथक स्थान मिलना चाहिए या इसे पुरस्नी हिन्दी का साहित्य ही मान लेना चाहिए। इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये हमें भाषा के इतिहास की ओर मुडना पड़ता है । भारतीय भाषाओं पर जित विद्वानों ने कार्य किया है, उनका मत है कि बंगला, मराठी, गुजराती प्रादि की भांति हिन्दी भी एक माधुनिक भारतीय नार्य-भाषा है। इसकी विभिन्न बोलियां उन उन क्षेत्रों में बोली जाने वाली अपनों से विकसित हुई है, और अन्य प्राधुनिक भारतीय भाषाओं की भांति हिंदी को विभिन्न बोलियों को भी कुछ विशषताएं हैं जो उन्हें उनके पूर्ववती अपभ्रंशों से अलग करती है। उनका यह भी मत है कि समस्त अपभ्रंशों को मध्य कालीन भारतीय आर्य भाषामों में स्थान मिलना चाहिए क्योंकि उनकी सामान्य प्रवृत्तियां मध्यकालीन भारतीय भाषाओं की है। किन्तु यहां पर यह भी आन लेना आवश्यक होगा कि बोलचाल को भाषाएँ एकदम पही बदलती हैं, उनमें धीरे धीरे परिवर्तन होता चलता है और पर मध्य कालीन और प्राधुनिक भार्य भाषाओं में जिस प्रकार का प्रन्तर बताया गया है, वह क्रमशः उपस्थित होता है । प्रतः काफी लंबे समय तक ऐसा रहा होगा कि अपभ्रश के विशिष्ट तत्व धीरे-धीरे समाप्त हुए होंगे और आधुनिक भारतीय भाषामों के विशिष्ट तत्व संकुरित होकर पल्लवित हुए होंगे | इसलिए जिस साहित्य में अपना और प्राधुनिक प्रार्य भाषाओं दोनों के तत्व मिलते हैं उन्हें कहां रक्खा जाए, यह प्रश्न बना ही रहता है, भले ही हम सिद्धान्ततः यह मानले कि अपनशPage Navigation
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