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श्री प्राचीनस्तपावली
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गइ गइ गृहमति लायजी ॥ ६० ॥ १ ॥ चोसठ इन्द्र तिके प्रिण आवी, मेरू शिखर न्हवरायजी । गीत मधुर ध्वनि वाटिक करके, मूकी गया निज आवास जी ॥ छ० ॥ २ ॥ ह्निवे परभात थियो कुंभ राजा, जन्म महोत्सव कीधजी ॥ दशोट्ठण बहु जनने जीमावी, मल्लिकुंवरी नाम दीधजी ॥ छ० ॥ ३॥ एकरात बरस थया केहि ऊणा, अवधि प्रयुजी तामजी । पूर्व भव छय मित्रा केरो, लही आगम नामजी ॥ छ० ॥ ४ ॥ ते मुझ रूपे मोह्या सघला, आवश्ये इणे ठामजी । इम जाणी कुंवरी गृह मांहें, कनक मुरति करी तामजी ॥ छ० ॥५॥ मस्तक छेद कवल एक मूके, आप जिमे तीन मांहिजी ॥ देव शक्ति ते दुरगंध प्रगटी, मित्र देखाइ उछा हजी ॥ छ० ॥ ६ ॥ ते देखी छए मित्र प्रतिबुधा, सहु गया निज गेहजी ॥ हिवे मल्लि दिक्षा अवसर जाणी, दिये वरसीदान तेहजी ॥ छ० ॥ ७ ॥