Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 44
________________ महाराज सम्प्रति के शिलालेख ३ में प्रयुक्त करते हैं । किन्तु यदि यह बात इसी रूप में हो भी तो भगवान् महावीर के सम्बन्ध में ही यह अधिक सम्भव जान पड़ती है। जिन चौदह स्वप्नों को समस्त तीर्थङ्करों की माताएँ गर्भ - संक्रमण के समय देखती हैं ( और जिनमें प्रथम श्वेत हस्ती है ) वे जैन धर्म में सुविदित ही हैं । ( इसी प्रकार पर्युषण पर्व के समय नगर-नगर और ग्राम ग्राम के उपाश्रयों में भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा के दिन भगवान् महावीर के 'जन्म वांचन' समय दर्शन, के लिये प्रस्तुत किया जाता है, तथा रथयात्रा के जुलूस के साथ भी श्राविकाएँ अपने सिर पर रखकर नंगे पैर चलती हैं । ) किन्तु भगवान् बुद्ध की माता को ये स्वप्न दिखाई दिये थे या नहीं, यह शंकास्पद ही है। (ग) संबोधिमयाय ( शिलालेख नं० ८ ) - इस शब्द का अर्थ विज्ञ जनों ने यह किया है कि "जिस वृक्ष के नीचे भगवान् बुद्ध को सर्वोत्कृष्ट ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उस बोधिवृक्ष के नीचे - छाया में जाकर "; किन्तु यह भावार्थ असंगत है, जो कि उसके स्वरूप पर से ही कहा जा सकता है । लेकिन इसी के साथ-साथ वे यह भी स्वीकार करते हैं कि सभी शिलालेखों में यदि किसी शब्द का अर्थ करने में सबसे अधिक कठिनाई होती हो तो वह केवल यही शब्द है । किन्तु जैन धर्म में तो यह शब्द अत्यन्त साधारण और निरन्तर उपयोग में आनेवाला कहा जा सकता है और इसका अर्थ "सम्यक्त्वप्राप्ति = संपूर्ण श्रद्धा,_ दर्शन" होता है । सम्यग् (१६) भात्रा शिलालेख के - जिसे वैराट् का द्वितीय शिलालेख भी ९६ कहा जाता है— आरम्भ में ही अशोक को बुद्ध (१६) दे० रा० भांडारकर-कृत राजा अशोक, पृ० ७३ ।

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