Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ wwwwww महाराज सम्प्रति के शिलालेख दूसरा कोई नहीं वरन् खुद राजा प्रियदर्शिन ही होना चाहिए, जिसने राज्याभिषेक होने के पश्चात् नवें वर्ष (श्रावक के) आठ व्रत'१६ ग्रहण किए थे। (२७) सम्प्रति राजा की जीवनी के विषय में जैन ग्रन्थों में११७ निम्न प्रकार से उल्लेख मिलता है-दिग्विजय करके वापस लौटने के बाद एक दिन जब वह अपने महल के गवाक्ष में बैठा था, उस ओर से जीवन्त स्वामी की रथयात्रा का जुलूस निकला । उस रथ के ऊपरी भाग पर दोनों११८ सूरि महाराज चल रहे थे। उन्हें देख कर विचार करने पर जातिस्मरण-ज्ञान होने से अपने पूर्व जन्म का दृश्य देखते ही राजा को मूर्छा आ गई। इसके बाद मन्त्रियों द्वारा वायु-प्रक्षेप आदि शीतोपचारों से वह सचेत हुआ और तत्काल ही महल से नीचे आकर उसने गुरु महाराज की तीन प्रदक्षिणा करने के बाद प्रणाम करते हुए पूछा-"भगवन् , क्या आप मुझे पहचानते हैं ?" तत्काल ही सूरि महाराज ने ज्ञान के बल पर उसे अपने क्षुल्लक शिष्य के रूप में पहचान लिया। राजा को गुरुवचन पर श्रद्धा हुई और उसने तत्काल ही जैन धर्म स्वीकार कर लिया। इसके दो वर्ष बाद उन्होंने कलिंग देश जीता और व्रत उच्चारण किए। फिर सम्यक्त्वधारी श्रावक बनकर संघ सहित वे तीर्थयात्रा के : (११६) आगे का २७वाँ पैराग्राफ़ देखिए। (११७ ) हेमचन्द्र सूरि का "परिशिष्टपर्व" महान् सम्प्रति नामक उनका जीवनचरित्र तथा भरतेश्वर बाहुबलवृत्ति प्रादि ग्रंथ देखिए। । (११८) प्रार्य महागिरिजी और प्रार्य सुहस्त्रि दोनों ही, सांसारिक दृष्टि से, सगे भाई थे और दीक्षावस्था में गुरुभाई थे । विशेष के लिए देखिए, टीका नं० २-३ और ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84