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महाराज सम्प्रति के शिलालेख बाद [ ई० पू० २८६-१६= ई० पू० २७० में ] अशोक की मृत्यु हुई; अतः वह इसके एक वर्ष बाद अपने पूज्य पितामह की सांवत्सरिक क्रिया करने के लिये उनके धर्म-तीर्थस्थान में गया होगा। [आज भी हिन्दू लोगों में यही प्रथा प्रचलित है।] दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि जिस प्रकार उसने अपने राज्य के अन्य स्थानों को देखा, उसी प्रकार वह इस स्थान में में भी गया हो, तीसरा कारण राज्यकर्त्ता के नाते अपनी प्रजा के धर्मस्थानों का सन्मान करने के लिए ही वहाँ गया हो; अथवा वह कहाँ तक धर्म-सहिष्णुता दिखला सकता है, अथवा किसी प्रजाप्रिय सम्राट को किस प्रकार बरतना चाहिये, यह बतलाने के लिये वहाँ गया हो । चौथे, जिस तरह अनेक हिंदू राजा स्वयं अन्य धर्मानुयायी होते हुए भी विभिन्न धर्म-मन्दिरों को बनवाते रहे हैं और उनके इस विषय के उल्लेख इतिहास में में पाये जाते हैं, उसी प्रकार राजपिता के नाते प्रजा के प्रति वात्सल्य भाव दिखलाने का भी उद्देश्य हो।
इस प्रकार उपर्युक्त दोनों शंकाओं का समाधान करने के बाद अन्त में पाठकों से निवेदन है कि मेरे बतलाए हुए प्रमाणों से यदि वे सहमत हों तो स्वाभाविक गति से उन्हें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अब तक जो महत्ता या कीर्ति सम्राट अशोक को दी जाती रही है, वह सम्राट् सम्प्रति को दी जानी चाहिए । इसी प्रकार शिलालेखों (चट्टानों या स्तंभ पर खुदे हुए) ने समग्र जगत् की सामान्य जनता पर सामाजिक, राजनीतिक या क्षेत्रानुरूप जो प्रभाव डाला है, वह बौद्ध धर्म के कारण नहीं, वरन् जैनधर्म के कारण ही है, यह मानना पड़ेगा। इसी लिये इस विषय का विस्तृत प्रचार कर जैनधर्म के साथ किए जाने वाले अन्याय को मिटाने के निमित्त उन्हें आगे बढ़ना चाहिए ।