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प्रा० जै० इ० दूसरा भाग
धर्म के विषय में कुछ भी उल्लेख हो, ऐसा मुझे विश्वास नहीं होता । सारांश यह कि, ग्रीक लोगों की किसी भी पुस्तक में बौद्धधर्म के विषय में नाममात्र के लिये भी उल्लेख नहीं पाया जाता। ऐसी दशा में बौद्धधर्म के उपदेशकों का वहाँ जाना और अपने धर्म का प्रचार करना तो सम्भव ही कैसे है ?
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(८) उपर्युक्त पुस्तक के ही पृष्ठ १६६ में आगे जाते हुए लिखा है कि " स्तम्भ लेखों में असहाय एवं दुखी प्राणियों के प्रति एवं द्विपद तथा चतुष्पद के प्रति और वायु- आश्रित जीवजन्तु तथा जलचर जीवों के प्रति जो दया, इत्यादि इस प्रकार सूक्ष्म दया का जिन शब्दों में विवेचन किया गया है, वे जैनधर्म के अतिरिक्त अन्य किसी धर्म या सम्प्रदाय के नहीं हो सकते।
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(६) भांडारकर महोदय लिखते हैं कि उ ६ स्तंभलेख नं० ३ में तो पाँच श्रव बतलाए हैं, किन्तु बौद्धधर्म में तो केवल तीन ही हैं जब कि बुलहर साहब ने इन पाँच श्रवों के बदले जैनधर्म के पाँच अणुव्रत होने के विषय में अपना मत प्रकट किया है ।
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whether there is any deference to Buddhism in the Greek accounts." (R. A. S. Vol. p. 191.
(३५) ज० रा० ए० सो० पु० ६ पृष्ठ १६६ Pillar Edicts:— "Towards the poor an afflicted, towards the hipeds and quadrapeds, towards the fouls of the air and things that move in the water." (३६) दे० रा० भांडारकर कृत अशोक पृ० १२७
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(३७) उन पाँच अणुव्रतों के नाम - ( १ ) प्राणातिपात विरमण