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प्रा० जै०
इ० दूसरा भाग
यह वाक्य ही रुद्रदामन् की अपेक्षा सम्राट् संप्रति के लिये पूर्ण रूप से उपयुक्त हो सकता है; क्योंकि शिलालेख नं० ८ के द्वारा हम संप्रति राजा के जीवन-सिद्धान्तों से १४ परिचित हो चुके हैं कि उसने कलिङ्ग देश जीतने के लिये जो चढ़ाई की थी उसमें अगणित संख्या में मनुष्यों की हत्या हुई देखकर उसका हृदय काँप उठा था, और इसी कारण उसने तत्काल प्रतिज्ञा की थी । जब हम क्षत्रप रुद्रदामन् के जीवन में कहीं भी इस बात का इशारा तक नहीं पाते, और शकों के समान घातक एवं क्रूर स्वभाव वाली अनार्य जाति के किसी व्यक्ति के हृदय में ( जिस जाति का राजा रुद्रदामन् था ) इस प्रकार की दया उत्पन्न होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती ।
(३) आगे चलकर यह निर्देश किया गया है कि पूर्व तथा पश्चिम आकारावन्ति १५, अनूपदेश ", आनर्त १७, सुराष्ट्र,
(१४) मुख्य लेख के शिलालेख वाले अंश के पैरा नं० ७-२७ आदि देखिए ।
(१५) इन शब्दों को अलग करने पर आकर = खानि + श्रवन्ति उज्जयिनी वाला प्रदेश भी इस अर्थ से ठीक तरह नहीं मिलता । जान पड़ता है कि उस प्रदेश के राजनीतिक दृष्टि से दो विभाग किये गये हों । क्योंकि पूर्व और पश्चिम के रूप में श्राक भी कई प्रदेशों के इस -तरह के विभाग दिखाई देते हैं ।
(१६) आधुनिक बरार प्रान्त का दक्षिण भाग ( रा० ए० श्रोο ०, पु० ७, पृ० ३४१ )
(१७) कंबोज, सिन्ध और यवन प्रान्तों के साथ उसका वर्णन किए जाने से ( देखिए रा० ए० सो० वें०, पु० ७, पृ० ३०१, विणी