Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ महाराजा सम्प्रति के शिलालेख ६७ इस प्रकार के लोक कल्याण के कार्यो का वर्णन एक से दूसरे के कानों तक पहुँचता रहा हो, जिससे कि इस प्रकार के मौर्यवंशी महान् सम्राट् के सत्कार्यो का उल्लेख करने की इच्छा राजा रुद्रादामन को हुई हो, और इसी लिये एक के बाद दूसरे सम्राट् के कार्यो का उल्लेख किया हो और उनकी पंक्ति में अपना नाम भी गौरवान्वित करने के लिये यह दरसाया हो कि इन उपर्युक्त सम्राटों की तरह, जिन्होंने अपने बाहुबल से अन्य देशों पर विजय प्राप्त की थी, मैं भी हूँ, जिसने अमुक-अमुक कार्य किए हैं। यदि इस प्रकार अपने कार्यो की मूक महिमा बढ़ाने का उद्देश्य न होता तो राजा रुद्रदामन् ने अपने कार्य दूसरे ही शिलालेखों पर खुदवाए होते । किन्तु उन्हें एक ही शिलाखंड पर खुदवाने से उनके साथ तुलना करने के अनुमानित उद्देश्य की पुष्टि होती है। ____इस प्रकार उपर्युक्त सारी परिस्थिति का अवलोकन करने से सहज ही यह अनुमान हो सकता है कि नवीं और दसवीं पंक्ति के बीच जो भाग लिखे बिना खाली रह गया है, उसमें अवश्य राजा प्रियदर्शिन का ही नाम होना चाहिए, क्योंकि सम्राट अशोक के बाद वे तत्काल ही राज्यारूढ़ हुए थे, और यह सारा वर्णन उसी के जीवन के लिये शोभारूप एवं सर्वथा उपयुक्त हो सकता है । इसी प्रकार प्रशंसारूप जो वाक्य उसमें बढ़ाए गए हैं, यथा-"जब से वह गर्भ में आया, तब से राज्यऋद्धि में अबधित वृद्धि होती रही"-"रणसंग्राम के अतिरिक्त . प्राणांत होने तक भी मनुष्य-वध न करने की प्रतिज्ञो की थी" और इस प्रकार के प्रदेश२७ अपने बाहुबल से जिसने जीत (२७) सम्राट् प्रियदर्शिन् जिन-जिन प्रदेशों के साथ राजनीतिक संबंध रखता था, उन सबकी तुलना कीजिए। (शिलालेख नं. २

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84