Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 65
________________ ५८ प्रा० जै० इ० दूसरा भाग (अर्थात् महीयते शब्द के अर्थ में जो हेर-फेर समझ लिया जाता है, उसका कारण यहाँ दृष्टिगोचर होता है)] [दूसरी शंका] लुम्बिनि २० शिलालेख में 'देवाणांप्रिय-प्रियदर्शिन्' शब्द है सही किन्तु लेख का अर्थ केवल इतना ही होता है कि प्रियदर्शिन राजा ने अपना राज्याभिषेक होने के २० वर्ष बाद इस स्थान को देखा । लेख में खुदे हुए 'महीयते' का अर्थ पूजा करने के रूप में लेना उचित नहीं कहा जा सकता । अन्यथा worship of personalities का अर्थ क्या किया जा सकता है ? सारांश, 'महीयते' शब्द का महिमा बढ़ाने या गाने के अर्थ में प्रयोग किया गया है, और ऐसा करने के लिये अनेक कारण हो सकते हैं। [ साथ ही व्याकरण का यह एक अबाधित नियम है कि विशेषण और विशेष्य दोनों के एक ही वचन और विभक्ति होने चाहिये । इस नियम के अनुसार यदि "देवाणां प्रिय" शब्द "अशोकस्स" का विशेषण होता तो वह इसके स्थान पर "देवाणां प्रियस्स अशोकस्स" के रूप में लिखा जाता। किन्तु जब 'देवाणां प्रिय' शब्द प्रथमा विभक्ति में है तो इसका विशेष्य भी प्रथमा विभक्ति में ही होना चाहिए, यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है और वे शब्द खाली छूटे हुए स्थान में थे, किन्तु इस समय घिसे हुए अथवा मिटाये हुए पाये जाते हैं । इस तरह मेरे उपयुक्त अनुमान का समर्थन होता है। ] सब से मुख्य संभावना तो इस बात की हो सकती है कि राजा प्रियदर्शिन के राज्याभिषेक के १६ वर्ष (१२६) दे० रा. भांडारकरकृत "अशोका पृष्ठ ७४ देखिए। . * इस सूचना के लिये मैं दीवान बहादुर केशवलाल हर्षदराय ध्रुव का कृतज्ञ हूँ।

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