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2. प्रा०० ई० दूसरा भागः । (२५.) प्रो० पिशल साहब की दृढ़ सम्मति है कि रूपनाथ, सहसराम और वैराट के शिलालेख भी संप्रति महाराज के ही खुदवाए हुए हैं। इस अभिप्राय के साथ प्रो० रीज डेविस . सा०११४ भी सहमत हैं।
(२६) शिलालेख नं० ८ मुख्यतः शिकार को बन्द करने से सम्बन्ध रखता है, और अपने राज्याभिषेक के बाद दसवें वर्ष खुदवाया गया है। अतः यदि वह सम्राट अशोक के समय का होता तो वह खुद ही उस समय पशुओं का शिकार बन्द कराने के बदले मनुष्य-संहार करने में निमग्न क्यों रहता११५ ? मनुष्यघृणा के कारण ही उसने एक नरकालय नाम का स्थान निर्माण किया था और उस मार्ग से यदि कोई मनुष्य निकल जाता तो फिर वह, भले ही अपराधी हो चाहे सर्वथा निर्दोष, या तो फाँसी के तख्ते पर लटका दिया जाता या गर्म तेल की कड़ाही में डाल कर मार डाला जाता था। जहाँ स्वयं सम्राट की मनोदशा इस प्रकार की हो, उससे यह आशा करना कि उसकी ओर से शिकार के निषेध का फर्मान निकाला जायगा-बिलकुल मूर्खतापूर्ण ही कहा जायगा। उसमें भी फिर जो बौद्ध धर्म का परम भक्त हो, जिसमें कि-यदि मेरी भूल न हो तो-मृगया में मारे हुए प्राणियों के मांस को आनन्दपूर्वक उदरस्थ करने का विधानहो-उसकी ओर से यह आशा करना सर्वथा मूर्खतापूर्ण ही कहा जायगा। ये सब बातें हमें इसी अन्तिम परिणाम पर पहुँचने के लिये बाध्य करती हैं कि इन शिलालेखों का कर्ता कोई बौद्धमतानुयायीं नहीं वरन् जैन ही हो सकता है; और वह
(११४) इंडि० ऐंटि०, पु० ६, पृ० १४६ । (११५) पादटीका नं० २ से इसकी तुलना कीजिये।