Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 54
________________ महाराज सम्पति के शिक्षालेख 'कर' लिया । इसके बाद वापस लौट आए । उस समय आचार्य महाराज भी विहार करते हुए उज्जयिनी पधारे थे; अतः उनसे व्रतों की दीक्षा लेकर सम्यक्त्व व्रतधारी श्रावक बने । ये बातें भी शिलालेखों के वर्णन से ज्यों की त्यों मिल जाती हैं । 1 (२८) पुरातत्त्व विभाग के असि० डाइरेक्टर जनरल स्व० पी० सी० बनर्जी लिखते हैं कि १२२ ये सब शिलालेख, जिनमें यवन राजाओं के नाम का अंगुलि-निर्देश किया गया है, किसी भी रूप में सम्राट् अशोक (द्वितीय) १२२ के बनाए हुए नहीं हो सकते । अधिक संभव तो उसके पौत्र राजा संप्रति के बनाए हुए होना ही है, जिसने जैन धर्म स्वीकार कर अपने पितामह का ( १२२ ) इंडि० ऐन्टि०, पृष्ठ ३२ पर उक्त महाशय प्रश्नावली उपस्थित करते हैं कि ( १ ) यदि सभी शिलालेख महाराज अशोक के होते तो उनमें से किसी में भी क्यों उन्होंने अपना नाम नहीं लिखा ? (२) प्रियदर्शिन् ने राज्याभिषेक के नौ वर्ष बाद व्रत लिए थे, ऐसी दशा में यदि उक्त वर्णन अशोक से सम्बन्ध रखता हो तो उसने राज्याभिषेक से छः मास पूर्व और गद्दी पर बैठने के चौथे वर्ष बौद्ध धर्म में प्रवेश किया होगा । ( ३ ) यदि दूसरा धर्म-परिवर्तन कहा जा सकता हो तो राजा प्रियदर्शिन् ने मगध संघयात्रा अपने राज्य के दसवें वर्ष की थी, जब कि मोग्गल - पुत्र के नेतृत्व में तीसरी बौद्ध-कौन्सिल अशोक - राज्य के सत्रहवें वर्ष हुई थी । इन सब कारणों से वे अशोक के शिलालेख नहीं हो सकते । ( १२२ अ ) शिशुनाग वंशी कालाशोक उर्फ महापद्म को प्रथम शोक कहा जाता है, जिसका शासन-काल ई० पू० ४५४ से ४२६ तक था । देखिए शिशुनाग वंश की वंशावली विषयक मेरा लेख टीका १६-१७ पृ० २ ।

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