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महाराज सम्प्रति के शिलालेख
थी। इसी लिये उसने अपने धर्म का अवलंबन भी वहीं ग्रहण किया है । सारांश यह कि उसकी जिंदगी की समस्त सारभूत घटनाओं का मुख्य स्थान यहीं था। साथ ही राजनीतिक दृष्टि से विचार करने पर भी वे कुछ दीर्घ दृष्टिवाले माने जा सकते हैं। क्योंकि इतने बड़े साम्राज्य की व्यवस्था ठेठ पाटलिपुत्र या राजगह जैसे एक कोने में पड़े हुए मगध देश के एक नगर में रहकर चलाने की अपेक्षा भारतवर्ष के हृदय रूपमध्यस्थल अवंति से१२५ शासनसूत्र चलाना श्रेयस्कर और अधिक उचित कहा जा सकता है।
मेरी धारणा है कि इस समप्र लेख को पढ़कर पाठकों को नीचे लिखे मुद्दों के विषय में पूर्ण विश्वास हुआ होगा
[प्रथम] महान् सिकन्दरशाह के समकालीन रूप में जिसका नाम ग्रीक ग्रंथकर्ताओं ने सेंडू कोट्स के रूप में बतलाया है, वे मगधपति चंद्रगुप्त नहीं वरन् मगधराज अशोक ही थे [ इसी लेख का तीसरा विभाग शिलालेख का पैरा नं० १४ और ३१]
[द्वितीय ] महाराजा अशोक, जो परम बौद्ध थे, उन्होंने नहीं वरन् सम्राट् प्रियदर्शिन् ने-जो एक परम जैनी थे-ये सारे शिलालेख खुदवाए थे।२६ । [विभाग तीसरा पैरा नं० १, ६, १०, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २६, २७ और २८ देखिए]
(१२५ अ) इस समय से अवंति नगरी का महत्त्व भारत की मुख्य राजधानी के रूप में विख्यात हो जाने के कारण इसे हस्तगत करके के लिये सभी राज्यकर्ता इक्छुक हो गए थे । अवंतिपति भी साधारणतः सबके अधिनायक माने जाने लगे थे।
(१२६) मस्की का शिलालेख (पृष्ठ ४६ ) देखिए।