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महाराज सम्प्रति के शिलालेख
महाराज अशोक को आनन्द, सुख और हृदय-शल्य से मुक्ति प्राप्त हुई थी। कारण यह था कि उस समय तक वे अपने को ही कुणाल के अन्धत्व के लिये कारणीभूत मानकर सदा उद्विग्न रहते थे और इसीलिये कुणाल के साथ किए गए अन्याय का किसी अंश में परिमार्जन करने के उद्देश्य से उन्होंने उसके पुत्र को गद्दी पर बिठाया। इसी के साथ साथ उन्होंने यह कहकर अपने मन को सन्तुष्ट किया कि मैंने जो भूल की थी, उसका दंड भी मैंने अपने हाथों भोग लिया । उस समय से लेकर संप्रति कुमार के १५. वर्ष की अवस्था में पहुँचने ( ई० पू० २६०-८८ ) तथा उनका राज्याभिषेक होने तक महाराजा अशोक ने उनके संरक्षक के रूप में शासन की व्यवस्था की।
पिता के प्रेम के चिह्नस्वरूप उनका रखा हुया नाम भी सुन रखा है। इसी प्रकार राजकाज में अपने पितामह की गद्दी पर बैठने के स्मारकरूप उनका दिया हुआ नाम सुरक्षित रखकर बारंबार शिलालेखों में उसका उपयोग किया। इन दोनों बातों से इसके पुष्ट प्रमाण मिल जाते हैं कि वह अपने पिता और पितामह के प्रति कितना भक्तिभाव रखता था। जब राजगुरु ने राशि के हिसाब से राज्यगद्दी के अनुकूल उसका नाम 'दशरथ' बताया होगा, तो उसने कदाचित् अपने पितामह के अवसान के पश्चात् नागार्जुन की गुफा में खुदवाया होगा। यदि यह अनुमान यथार्थ हो तो नागार्जुन की गुफा का समय ई० पू० २०० के बाद माना जाता है । ( देखिए इस लेख की पादटीका नं० १) किन्तु इस निर्णय पर पहुँचने के बाद विशेष अध्ययन करने पर यह मालूम हुआ है कि दशरथ भी अशोक का पौत्र था और प्रियदर्शिन् के अधीनस्थ उड़ीसा प्रान्त का सूबेदार था । सारांश, प्रियदर्शिन् और दशरथ ये दोनों भिन्न व्यक्ति थे।