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[५७] आखर तुम हीज प्रापशो तो शाने हो करो छो वार के ॥श्री सु०॥३॥ मनमाँ विमाशी शु रह्या अंश ओछु हो ते होय महराज के । निरगुण ने गुण आपतां ते वाते हो नहीं प्रभु लाज के ॥श्री स०॥४॥ मोटा पासे मांगे सहु कुण करशे हो खोटानी आश के । दाताने देतां वधे घणु कृपण ने हो होय तेह नो नाश के ॥श्री सु०॥॥ कृपाकरी सामुजो जुओ तो भांजे हो मुज कर्म नी जाल के, उत्तर साधक उभां थकां, जिम विद्या हो सिद्ध हो तत्काल के ॥श्री सु०॥६॥ जाणु आगल कहेवु किप्यु, पण अरथी हो करे अरदास के । श्री खिमा विजय पय सेवतां, जस लहीये हो प्रभु नामे खास के ॥श्री सु०॥७॥
२० विमलनाथजी का स्तवन
(राग-सभव जिनवर विनती–ए देशी) विमल जिनेसर वंदी ए, कंदीये मिथ्या मूलो रे । प्रानंदीये प्रभु मुख देखी ने, तो लहीये सुख अनुकूलो रे ॥वि०१॥ विमल नाम के जेहनु, विमल देसण सोहे रे । विमल चारित्र गुणे करी, भवियणनो मन मोहे रे ॥वि०२।। विमल बुद्धि तो उपजे, जो विमल जिनेसर ध्यायरे । विमल चरण प्रभु सेवतां, विमल पदारथ पाय रे ॥वि०३।। विमल कमल दल लोयणां, वदन विमल ससी सोहे रे ।