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४ गहूँली (राग-आज रंग वरसे म्हारो सूत्र सुन हियडे हर्षे–ए देशी)
गुरु गुण पूरा आगम सूरा सागरानंद सूरि राया रे, ॥टेक॥ सिंह समान महितल पर विचरे धर्म ध्वजा फहराते रे । मधुर धनी की देशना प्यारी प्रतिबोधे नरनारी रे ॥ गुरु० ॥ १ ॥ धर्म पताका लेकर संग में फिरो मत गति मझार रे । इस संकट को दूर करो तो सेवो पद गुरुरायरे ॥ गुरु० ॥ २ ॥ प्रीत करो यति धर्म से सारी, अन्य प्रीत दुःख भारी रे । सद्गुरु भाषे धर्म आराधो, होगा भव निस्तार रे ।। गुरु० ॥ ३ ॥ मिथ्या भोषी कपट न करना, दोष अठार को तजना रे । श्रवण करो अतिचार पियारा, लागत दोष अपार रे ॥ गुरु० ॥ ४ ॥ छल छिद्रो को कभी न देखो, मनका महत्व विचारो रे । ज्ञान दीप को प्रगट करी भवि, टालो विषय विकार रे ।। गुरु० ॥ ५ ॥ देव नर्क तियंच गति के, कठिन दुःख अपार रे । पुण्योदय से नरभव पायो 'मनोहर', जैन धर्म सुखकार रे ॥गुरु०॥६॥
५ विहार की गहूँली (राग-मारे सोना सरिखो सूरज उगीयो)
गुरुराजजी वहेला पधारजो, देश मालव यह सूर्नु पडयु । भूरे रात दिवस नरनार रे ॥ गु० ॥१॥ पूरा