Book Title: Prabhu Veer evam Upsarga
Author(s): Shreyansprabhsuri
Publisher: Smruti Mandir Prakashan

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Page 17
________________ । फिर भी मिथ्यात्व की मंद अवस्था होनी आवश्यक है। उसके बिना प्रभु भक्ति का भी सच्चे अर्थ में परिणमन नहीं होता, प्रभु की पहचान भी होती नहीं है। सामान्यतः किसी की भी पहचान के लिए दो साघन होते हैं । (१) उनकी आकृति व ( २ ) उनका चरित्र, परमात्मा की साक्षात् आकृति की विशेषताएँ तो शब्दातीत हैं, लेकिन उनकी प्रतिमाएँ भी वीतरागता की प्रतीति करावें ऐसी हैं। सर्वदोषरहित और सर्वगुणसम्पन्न प्रभु की पहचान के लिए उनकी मूर्तियों का दर्शन एक महत्वपूर्ण उपाय है । प्रभुमय बनानेवाला जीवन ठीक इसी प्रकार, वे सम्यक्त्व पाते हैं तब से वीतरागता पर्यन्तं की अद्भुत जीवन कथा किसी भी अपरिचित-विचारक मनुष्य को प्रभुमय बना दे ऐसी है। काशी - बनारस के विश्वविद्यालय (युनिवर्सिटी) में षड्दर्शन के एक विद्वान प्रोफेसर व्याख्यान ( लेकर ) दे रहे थे । प्रसंगवश इन्होंने ऐसा बताया कि "भगवान श्रीरामचंद्रजी जब वनवास में थे तब जंगल मे एक झोपड़ी बनाकर रह रहे थे, महासती सीतादेवी झोपड़ी के बाहर साफ-सफाई कर रही थी, तभी उड़ता हुआ एक कौआ महादेवी सीता को चोंच मारने लगा। यह देखकर श्रीरामचंद्रजीने शीघ्र ही धनुष पर बाण चढाया । जब क्रि जैनों के भगवान श्रीमहावीर प्रभु ने अपने शरीर पर टूट पड़े हुए उपसर्गों को सहन करते हुए तथा कष्ट देनेवालों के प्रति नेत्र की पुतली खोलकर देखा तक नहीं । ये थी महावीरप्रभु की जीवों के प्रति क्षमाभावना ! "यहाँ उस प्रोफेसर के वक्तव्य से क्या स्पष्ट होता है ? प्रभु की जीवनकथा यह कथा नहीं, अपितु एक उच्चतम आदर्श है। 1 राग-द्वेषके विजेता भगवान ऋषभदेवजी जब युवावस्था में पहुँचे तब खुद का कल्प समझनेवालें इन्द्र महाराजा ने विवाह प्रसंग की तैयारी के साथ प्रभुके पास आकर हाथ जोड़कर विनती की, 'प्रभो! आपका विवाह का विधान करना यह मेरा आचार है। आपश्री मुझे इस हेतु आदेश दे, 'तब कलिकालसर्वज्ञ श्री ने इस प्रसंग को नोट किया है कि यह सुनकर प्रभु का मुख मुरझा गया और विचारने लगे कि 'हमारे जैसे जगदुद्धारकको भी नीच कर्मों के नाश के लिए नीच उपाय का सेवन करना पड़ेगा ?' ये सभी प्रसंग वीतराग देवों की छद्मस्थ अवस्था में भीराग-द्वेष पर विजय की साक्षी देता है । अतः प्रभु के स्वरुप को पहचानने के प्रभूवीर एवं उपसर्ग 2

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