Book Title: Prabhu Veer evam Upsarga
Author(s): Shreyansprabhsuri
Publisher: Smruti Mandir Prakashan

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Page 66
________________ -प्रभूवीर एवं उपसर्ग 51 लोकान्तिक देवो की विनती । करते हैं । प्रभु सबको सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि 'महानुभावों ! आपलोगों के द्वारा दिये गये समग्र का गृहवासकाल पूर्ण हुआ, अब सर्वविरति 'स्वीकारने का अवसर आ गया है, इसलिये सहर्ष मुझे अनुमति दीजिये । रागमोह का बंधन तोड़ें, वियोग से घबराये अपने मन को स्थिर बनाइये ।' यह सुनकर सभी प्रकार इधर उधर देखते ही रह गये, आँसू भरे नेत्रों से रोते-रोते शोकसागर के आवेग को काफी प्रयास के बाद रोककर शान्त करके बोले 'भगवंत् ! ऐसे आपके शब्दों को सुनते हमारे श्रोत्र बहेरें नहिं हुए इससे लगता है कि हमारे कान वज्र के होंगे ? हमारा हृदय भी वज्र के सारपरमाणु से बना होगा ? जिससे कि यह टूटता नहीं तथा हमें ऐसा लगता है कि हमारे शरीर भी धरातल में प्रवेश नहीं कर सकता हैं, इससे लगता है कि उसमें दाक्षिण्य ही नहीं रहा है । आप ही विचार कीजिये कि ऐसी हालत बेचारा शब्द किस साहस को पाकर कैसे निकलेगा ? आपके बिना हमारा आधार कौन है ? ज्ञातक्षत्रियकुल की शोभा कौन ? अहो... हो हम सभी मंदभागी हैं कि हमारे हाथ से रत्न चला जा रहा है।' इसके बाद भी पाँव में पड़कर अनिच्छा से भी निष्क्रमण करने देने की विनती करते हैं और प्रभु उनकी प्रार्थना का भंग नहीं करते । फिर तो हम सभी जानते है कि एक तरफ उनकी तैयारी चल रही है तो

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