Book Title: Prabhu Veer evam Upsarga
Author(s): Shreyansprabhsuri
Publisher: Smruti Mandir Prakashan

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Page 80
________________ प्रभूवीर एवं उपसर्ग 65 सर्प का जहरं क्या बिगाड़ सकता है ? संगम न जाने किस मुहूर्त में आया कि उसे हार ही हार हो रही है। राजसभा यह धर्मसभा सर्प की जाति... दंश पर दंश मारे जाता है प्रभु ज्यों कि त्यों अडिग रहते हैं । सभा: मन पर ऐसा नियंत्रण कैसे संभव है ? पूज्यश्रीः वहपुराना प्रसंग याद करो । एक नगर है ..... राजा धर्मप्रेमी है.... संसार में है। राज्य की जिम्मेदारी है। राजसभा में आवश्यकतानुसार राज्यचर्चा के बाद धर्मसभा बन जाती है। एक बार नगरशेठ की जगह उनका पुत्र सभा में आता है। महात्मा का गुणगान चल रहा है... राजा महात्माओं के मनोनिग्रह की प्रशंसा करते हैं। श्रेष्ठिपुत्र को यह बात आवश्यकता से अधिक लगती है। वह कहता है महाराज ! आप नायक हो.... आपकी बात का प्रतिकार कौन करे ? लेकिन मन को निग्रह किया जा सके यह बात गले उतरती नहीं है। राजा सच्चे धर्मप्रेमी थे । इस लिए जीव धर्म प्राप्त करे ऐसी इनकी इच्छा थी । इसके कारण सत्ता के बल से चुनौती देने का प्रयत्न नहीं किया बल्कि प्रसंग आने पर समझा देने की इच्छा से उस समय इस बात को एक नया मोड़ दे दिया । • एक समय अपने अंगत सेवक को श्रेष्ठिपुत्र के साथ मित्रता करने के लिये सूचन क्रिया । जब दोनो में अभिन्न मित्रता हो जाय तो बताने के लिये सूचन दिया थोड़े दिनों में मैत्री जम गयी। राजाने अपनी अंगुठी देकर सेवक को कहा कि उसके आभूषण मंजूषा में वह न जाने इस तरह यह रख देना । इसके बाद मुझे बताना । सेवक ने वैसा ही किया । राजाने एक बार सभा समक्ष ही 'मेरी मुद्रिका की चोरी हो गयी है, गुम हो गयी है, जिसके हाथ में आये वह पहुंचा दें, नहीं तो सबकी तलाशी लेनी होगी, जिसके यहाँ से अंगूठी मिलेगी उसे मृत्युदंड दिया जायेगा।' ऐसी उद्घोषणा करायी गयी । किसे अपने पर शंका हो ? सभी निश्चित थे । राजाने दो-तीन दिनों के बाद सबके घर तलाश करने का आदेश दिया। इसके साथ ही गुप्त रूप से श्रेष्ठिपुत्र के यहां ही जाने का सिपाहियों को हुकुम दिया। सेठ व उनके परिवार को इस बारे में चिंता ही नहीं थी। पूरा घर खोल कर छोड़ दिया, उनके पास छिपाने जैसा कुछ था ही नहीं । इसलिये जेवर का डिब्बा भी खोलकर बताया । राजा के निर्देशानुसार श्रेष्ठपुत्र के घर में

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