Book Title: Prabhu Veer evam Upsarga
Author(s): Shreyansprabhsuri
Publisher: Smruti Mandir Prakashan

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Page 23
________________ अतिथि को पाने की भूख तीव्र है इसके कारण पेट की भूख गौण लगती है। दूसरा कारण गया है कि साधुनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः यह मालूम है ? साधहै कि स्वयं जिस तरह अतिथि की खोज कर सकते, उस तरह कोई अन्य कैसे ढूंढ सकता है ? देखने जैसी बात यह है कि जंगल में भी उन्हें अतिथि चाहिये । जब तुम्हें शहर में भटका जाय ऐसा कहुँ ? या मिले तो भी ऐसा कहुं ? उन महानुभाव के भव्य भावी का ही यह परिपाक है। नयसार जंगल में अतिथिशोधके लिये निकल पड़ता है। काफी ढूंढने व एड़ी-चोटी पसीना बहाने के बाद बड़े सौभाग्य से पसीने से भीगे हुए सर्वसंगत्यागी ऐसे महात्माओं का दर्शन उन्हें होता है। नयसार का मुख ही नहीं, बल्कि हृदय खिल गया और साधु से सविनय पूछा कि महात्माओ ! हमारे सदृश शस्त्रधारी भी जिस जंगल में अकेला घूमता नहीं तो आप ऐसे जंगल में क्यों घुमतें हो ? महात्माओं ने अपने सार्थ सहित प्रयाण एवं गाँव में गोचरी हेतु जाते सार्थवियोग की बात बतायी, नयसार को नामुनासिब लगा, स्वार्थी सार्थ के प्रति गुस्सा भी आया, फिर भी 'पापानां वार्तयाप्यलम्' कहकर अपने उत्तम भाग्य से पुलकित होकर महात्माओं को आमंत्रण देता है । आहार- पानी का दान देता है। उन्हें रहनेवापरने (उपयोग करने, गोचरी करने आदि) के लिये स्थान बताता है। इसके बाद स्वयं भोजन करता है। ऐसे महापुरुष की महानता पर जरा विचार करना । आज हम कभी ऐसा भी अनुभव करते हैं कि ' थके-मांदे आये होते हैं तो पूजा के वस्त्र पहने व्यक्ति को जैन समझकर रास्ता पूछते हैं तो वे बताते कि साहेब, पहले इस तरफ जायें, फिर दाहिनी तरफ घुमें और फिर सीधा जाये तो सामने ही उपाश्रय दिखाई देगा' ऐसा कहते, लेकिन साथ में आने की इच्छा रखते नहीं । इसका कारण है कि अतिथि की पहचान और अतिथि के आदर का यथोचित ज्ञान ही उन्हें नहीं मिला है इसलिये ? • सभा- साहेब, रोज मिलते है और अनेक मिलते हैं इसलिये ऐसा हुआ होगा ? कहा जाता है न कि - अतिपरिचयादवज्ञा ? पूज्यश्री- भले आदमी, यह वचन पागलों का हैं। विवेकवानों को तो जैसे-जैसे सुविहित महात्माओं का सान्निध्य मिलता है, वैसे-वैसे उनका बहुमान भक्ति बढती जाती है। कहा भी का दर्शन ही पवित्र गिना गया है और साधु तो तीर्थरूप होते हैं। ऐसा जानने-समजनेवाले को अनादर होने का प्रसंग आऐ ? महात्माओं केप्रति अनादरभाव यह तो अपने हित का अनादर है ऐसा कहा जा सकता है। 8 प्रभूवीर एवं उपसर्ग

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