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तीर्थंकर नामकर्म की निकाचना तीर्थंकर बननेवाली आत्माएँ तीर्थंकर रूपअन्तिम भव से पूर्व के तीसरे . भव में तीर्थंकर नामकर्म की निकाचना करती हैं, तीर्थंकर नामकर्म एक ऐसा कर्म है जो मेहनत करके प्राप्त करने जैसा माना गया है, समकीत की उपस्थिति के अलावा वह बँधता नहीं है और तीर्थंकर की आत्मा के सिवाय कोई उसकी निकाचना कर सकते नहीं । दीक्षाग्रहणदिन से एक लाख वर्ष के चारित्र पर्याय में ग्यारहलाख अस्सी हजार छहसौ पैंतालीस मासक्षमण के जब्बर तप के साथ 'जो होवे मुज शक्ति इसी, सवी जीव करूं शासन रसी'इस प्रकार की दृढ एवं उदात्त भावना के बल से परार्थकरण आदि मूलभूत संचित हुए गुणों के प्रकटीकरण पूर्वक श्रीनंदनराजर्षि ने तीर्थंकर नामकर्म की निकाचना की। जिसमें श्रीअरिहंत आदि बीसंस्थानको की विशिष्ट प्रकार की ये परम तारक के आत्माने साधना की है। शत्रु-मित्र सभी जीवों में पराकाष्ठा की समभावना के प्रभाव से जीवमात्र का एकमात्र सच्चे हित की भावना के प्रभाव से तीर्थंकर नामकर्म निकाचित होती है।
बीसस्थानक किस प्रकार करते हैं ? - आज वीसस्थानक की आराधना चारों प्रकार के श्रीसंघ में बड़े पैमाने पर होती हैं, उपवास कर लें,माला फिर लें लेकिन अपने भाव का ठिकाना है? स्वार्थ के फंदे से न निकलनेवाले परार्थकरण की पराकाष्ठा को कैसे प्राप्त कर सकते ? एक-एक पद की आराधना श्रीनंदनराजर्षि ने की है, उसका वर्णन ग्रन्थकार ने जो किया है वह अद्भुत है। तीर्थंकर बननेवाले इन महात्माओं की आराधना को संपूर्ण रूप से भला कौन वर्णन कर सकता है ? अरिहंतपद के आराधक अपने लोगों को अरिहंत की आज्ञा सर्वस्व लगती है ? सुख से भी हरा-भरा यह संसार रहने लायक नहीं है यह बात आराधक के हृदय में सुस्थिर है?अरिहंतपना पाने के लिये अरिहंत को भजते हो ? अरिहन्त कब हुआजाय? सिद्धपद की आराधना करते हुए सिद्धपना का लक्ष्य निश्चय कर लिया है? उनउन पदों की आराधना करनी श्रेष्ठ है लेकिन अपने हृदय भाव को दमन करना पड़ेगा न? स्वार्थपरायणता में से परार्थपरायण बनने का प्रयास जारी है ? ये अनादि के दोष को टालना मुश्किल है।उपयुक्त जीवों के लिये अधिक पुरुषार्थ से साध्य है। अपनी आत्मा दोषों का समंदर है इसे सुन्दर गुणों का सरोवर बनाना है। कहा जाता है कि गद्धा शक्कर खाता है तो उसे ज्वर आ जाता है, 40
प्रभूवीर एवं उपसर्ग