Book Title: Prabhu Veer evam Upsarga
Author(s): Shreyansprabhsuri
Publisher: Smruti Mandir Prakashan

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Page 15
________________ परिपालिय वीसईकारणेहिं तित्थाहिवत्तमज्जिणिउं । . . . पाणयकप्पा चविउं कुंडग्गामंमि नयरंमि ॥११॥ . सिद्धत्थरायपुत्तो होउं जंतूणमुद्धरणहेउं । सव्वविरइं पवज्जिय दुव्विसहपरीसहे सहिउं ॥१२॥ केवललच्छि लहिलं संपत्तो मोक्खसोक्खमक्खंडं । अट्ठहिं पत्थावेहिं सिद्धताओ तह कहेमि ॥१३॥ .. - महावीर चरियम् भावार्थ : समस्त आगम शास्त्रों का श्रवण करने में असमर्थ भव्यजीवों को बुद्धिनिधान गुरु भी प्रभु वीर का सम्पूर्ण जीवन कैसे कह सकते हैं ? अतः अप्रतिम प्रभाव से धर्मरूपी धुरी को धारण करनेवाले त्रिलोकगुरु प्रभुवीर पहले चतुर्गति संसार में भ्रमण कर प्रगाढ़ मिथ्यात्व के पर्वत को भेदकर समस्त सुखों के मूलरूप श्रेष्ठ सम्यक्त्व को ग्रामचिन्तक नयसार के भव में जिस प्रकार प्राप्त किया, उसके बाद देवत्व को प्राप्त कर चक्रवर्ती भरत के पुत्र के रूप में मरीचि के भव में प्रभुशासन की दीक्षा प्राप्त की, वहां के कर्मों के कारण दुःसाध्य परिषहों से भग्न हृदयवाला बनकर जिस प्रकार त्रिदंडकत्व को प्रकाशित किया,मिथ्यात्व के उदय से कपिल को देशना देकर कोडाकोडी सागरप्रमाण संसार वृद्धि की । छः-छः भवों में परिव्राजकत्व प्राप्त किया, दीर्घ संसार का परिभ्रमण कर राजगृही में विश्वभूति राजकुमार बने, कठोर चिरित्र का पालन किया ।अन्त में नियाणा कर देवत्व को प्राप्त किया और अन्त में वासुदेव हुए।मूकापुरी में प्रियमित्र चक्रवर्ती के भव में श्रेष्ठ संयम का पालन किया । छत्रिकानगरी में नंदन राजा और नंदन राजर्षि बने । बीस स्थानक की विशिष्ट आराधना कर तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन-निकाचन किया। दसवें प्राणत देलोक से च्यवन कर क्षत्रियकुंडगाम नगर में त्रिशलादेवी के पुत्र सिद्धार्थ के रूप में अवतरित हुए । सर्वविरति को प्राप्त कर दुःसाध्य परिषहों तथा उपसर्गों के समूह को पराजित कर केवलज्ञान प्राप्त किया।शासन की स्थापना की और सर्व कर्मों का क्षय कर निर्वाणपदको प्राप्त किया।ये सारी बातें यहाँ ( महावीर चरित्र ) में आठ प्रस्तावों में वर्णित है।

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