Book Title: Parvatithi Kshay Vruddhi Prashnottar Vichar tatha Muhpatti Bandhan Nibandh
Author(s): Hemchandrasuri Acharya
Publisher: Chinubhai Trikamlal Saraf

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Page 33
________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तर विचार उत्तर-जे परंपरा कई सदीओथी चालती होय अने नेने माटे आगममां विधि के निषेध न जणातो होय तेवी परंपराने पण गीताथ, पोतानी मतिकल्पनाथी दूषित ठरावीने तोडे नहि. तेने माटे जुओ श्री शान्तिसूरीश्वरजीकृत धर्मरत्न प्रकरणनो पाठ, पत्रांक २६४. ___जं च न सुत्त विहियं न य पडिसिद्धं जणमि चिररूढं।। समइ विगप्पियदोसा, तं पि न दूसंति गोयत्था ।। ९९ ।। टोका-इह च शब्दः पुनरर्थ इति यत् पुनरर्थजातमनुष्ठानं वा नैव मूत्र-सिद्धान्ते विहितं करणीयत्वेनोक्तं चैत्यवंदनावश्यकादिवत् न च प्रतिषिधं प्राणातिपातादिवत्, अथ च जने-लोके चिररूढमज्ञातादिभावं स्वमतिविकल्पितदोषातस्वाभिप्रायसंकल्पितषणात् तदपि, आस्तामागमोक्तं न दुषयन्ति-न युक्तं एतदिति परस्य नोपदिशन्ति संसारद्धिभीरवो गीतार्था-विदितागमतत्त्वाः, यतस्ते एवं श्रीभगवत्युक्तं पर्यालोचयन्ति-तथाहि-"जेणं मदुया! अलुवा हेउवा पसिणं वा वागरणं वा अन्नायं वा अदिळं वा अस्सुयं वा अपरिम्नायं वा, बहुजणमज्झे आघवेइ पन्नवेइ परुवेइ दंसेइ निदंसेइ उपदंसेइ, से गं अरहंताणं, आसायणाए वइ, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स आसायणाए वट्टइ, केवलीणं आसायगाए वइ केवलीपन्नत्तस्स धम्मस्स आसायणाए वहइ ॥ भगवती श० १८, उ० ५, सूत्र ६३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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