Book Title: Parvatithi Kshay Vruddhi Prashnottar Vichar tatha Muhpatti Bandhan Nibandh
Author(s): Hemchandrasuri Acharya
Publisher: Chinubhai Trikamlal Saraf

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Page 35
________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तर विचार २६ नहि निषेधेलु आचरित एटले बधा धार्मिक लोकमां चालतो व्यवहार, तेने अनतिशयी एटले विशिष्टश्रुत के अवधि बगेरे अतिशय रहित कयों माणस पूर्व पूर्वतर उत्तम आचार्यांनी आशातनाथी डरनारो होई निवारी शके ? कोई ज नहि. वळी गीतार्थो तो आ पण विचरे छे के अइसाहसमेय जं उत्सुत्तपरूवणा कडुविवागा । जाणतेहिं वि दिज्जर निंदेसो सुत्तबज्झत्थे ॥ १०१ ॥ अर्थ -- उत्सूत्रप्ररूपणा कडवां फल आपनारी छे, एवं जाणता छतां पण जेओ सूत्रबाह्य अर्थमां निश्चय आपी दे छे, ते अति साहस छे, एटले शुं कहुं ते कहे छे दुभासिएण इक्केण मरीई दुक्खसागरं पत्तो || भमिओ कोडा कोडि - सागर सिरिनामधिज्जाणं ॥ १ ॥ उस्सुत्तमाचरंतो'धइ कम्मं सुचिक्कणं जीवो । संसारं च पवड्ढइ मायामांसं च कुव्वइ य ॥ २ ॥ अर्थ - मरीचि एक दुर्भाषित वचनथी दुःखना दरि यामां पडी कोडोकोड सागरोपम भम्यो ॥ १ ॥ उत्सूत्र mardi जीव चीकणां कर्म बांधे छे अने मायामृषावाद सेवे छे. ॥ २ ॥ आ उपर आपेल धर्मरत्न प्रकरणना पाठथी वांचको समजी शकया हशे के जे बाबत सूत्रमां विहित न होय तेम निषेध पण करेल न होय अने धार्मिक लोकमां लांबा वखतथी चालतो व्यवहार होय तेने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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