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पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तर विचार अर्थात् के जैन सिद्धांतो जैनागमोथी विरुद्ध कथन करवा जेवू एक पण महापाप नथी; कारण के सरोवरमां फेंकेला कंकरथी जेम जळना कुंडाळा वधतां समस्त सरोवरमां प्रसार पामी जाय छे तेम एक मात्र उत्सूत्र-वचन ते विस्तार पामतां समस्त शासनने छिन्न भिन्न करी मूके छे. शरुआतमां तो निर्जन अरण्यमां एक मात्र पगदंडी ज (केडी) पडे छे, परंतु तेना पर विशेष अवरजवर थतां ते एक महामार्गनु स्वरुप धारण करे छे तेवीज रीते उत्सूत्र-प्ररुपणार्नु समजी लेवु. तेथीज शास्त्रकारोए उत्सूत्र-प्ररुपणाने तोले आवे तेवु. एक पण पाप गणाव्यं नथी. बीजा पापा तो अन्य धर्मकरणी के तीर्थयात्रादि करता विनाश पामे परंतु उत्सूत्र-प्ररुपणा तो अनंत भवभ्रमण वधारे छे. जुओ चरम जिनपति श्री महावीरस्वामीना पूर्वभवन मरिचीन दृष्टांत.
उत्सूत्र-प्ररुपणाथी भोळा प्राणीओ भोळवाई जाय छे. अने धर्मने बदले अधर्मर्नु आचरण करी बेसे छे, माटे ज श्री आनंदघनजी महाराज फरमावे छे के-आ विश्वमा सूत्रोमां फरमाव्या प्रमाणे उपदेश करवा सिवाय बीजो कोई उत्तम धर्म नथी. सूत्र ए दीवादांडी सदृश छे. जेम दीवा दांडी समुद्रमां अटवायेला जहाजने किनारा पर लाववामां सहायक बने छे तेवी रीते आगमशास्त्रो जीवन नौकाने भवसमुद्रमांथी तीरे खेंची लाववा समर्थ बने छे; एटले के जे भव्य प्राणीओ तीर्थकर भगवंतोए उपदेशेल अने गणधर
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