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पाडण्व-पुराण ।
का अभाव ही मुनियोंका
उसमें निर्ग्रन्धता ही मधान है। निर्ग्रन्थता -- ममता - भाव सर्वस्व है । वही दुर्द्धर तप है । वही उत्तम ध्यान है । निर्मल- ज्ञान और उत्तम गुण भी वही है । उसके बिना मुनि मुनि ही नहीं कहला सकता, और इसी लिए सुनिधर्ममें उसे पहला स्थान मिला है । पर इसका धारण करना बहुत कठिन है । अब श्रावकधर्मको सुनिए । इसके शील, तप, दान, और भवाना ये चार भेद हैं । इसको पालने से स्वर्ग-सुख मिलता है । शील ब्रह्मचर्यको कहते है । यह आत्माका सच्चा स्वभाव है । इसके द्वारा और और व्रतोंकी रक्षा होती है। बहुत क्या कहा जावे, इसके होने पर और और गुण विना परिश्रम ही प्राप्त हो जाते है । इस कारण इसे अवश्य पालना चाहिए । तप इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे हटा कर वशमें करनेको या यों कि शरीरको वशमें कर लेनेको तप कहते हैं । वह वाह्य और अभ्यन्तर भेद से
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छः छः प्रकारका है ।
दान- मन-वचन-कार्यकी शुद्धि - पूर्वक उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रके अर्थ धन खर्च करनेको दान कहते हैं । इसके आहार, औषध, शास्त्र और अभय ये चार भेद है । इसका फल भोगभूमि है । पर इतना विशेष है कि जैसे उत्तम आदि पात्रोंके लिए दान दिया जायगा वैसा ही उत्तम आदि भोगभूमिरूप फल भी मिलेगा ।
भावना - जिनधर्मके मनन और चैतन्य - स्वरूप आत्माकी या यों कि हृदयकी शुद्धिका नाम भावना है । भावनासे आत्म-वल बढ़ता है ।
इस भाँति प्रभुने धर्मका उपदेश किया । जिसको सुन कर भव्यजीव बहुत सुखी हुए। इसके बाद महाराजको नगर जानेकी इच्छा हुई और वे प्रभुको प्रणाम कर वापिस चले आये । वाद नरेन्द्रों और देवतों द्वारा सेवित वीरप्रभुने भी और और देशों में धर्मका उपदेश करने के लिए वहाँसे विहार किया । कुछ काल बाद महाराज अपने नगरको जा पहुँचे और वहाँ वे चेलिन के साथ आमोद-प्रमोदसे काल विताने लगे । चेलिनी रानी बड़े उदार दिलकी थी। वह चंचल स्वभाववाली और स्वभावसे ही हमेशा वीरप्रभुका ध्यान किया करती थी । इधर दीन-दुखी जीवोंकों सुखी बनानेके लिए महाराज हमेशा दान देते थे और उधर संसार - तापसे संतप्त जीवोंको शान्ति पहुॅचानेके लिए वीरमभु अपनी दिव्यवाणीके द्वारा धर्मका उपदेश करते थे । धीरे धीरे वीरमने बहुतसे आर्य देशों में विहार किया और