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पाण्डव-पुराण |
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जिस भाँति नदी पहाड़ से निकल समुद्र में जाकर गिरती है उसी भाँति वे भी - चेटक रूप पहाड़ से उत्पन्न हो सिद्धार्थ समुद्र में जाकर मिल गई थीं । नदी समुद्रकी प्रिया होती है, वे सिद्धार्थ समुद्रकी प्यारी थीं और इसी कारण लोग उन्हें प्रियकारिणी भी कहते थे । वे उच्च कुलमें पैदा हुई थीं। उत्तम गुणोंकी खान और भंडार थीं । वे सभी कलाओं में प्रवीण और हर एक काममें चतुरा थीं । भगवान महावीर छह महीने बाद उनके गर्भ में आनेवाले थे, पर इसके पहलेही से छप्पन देवकुमारियां उनकी सेवा--उपासना करती थीं। तथा कुबेर आदि देवता-गण भी भाँति भाँतिकी दिव्य वस्तुएँ ला ला कर उनकी उपासना करते थे । एक समय त्रिशलादेवी अपने शयनागारमें पलंग पर सुखकी नींदमें सोई हुई थीं । रातका पिछला पहर था । इस समय उन्होंने सोलह स्वमको देखा ।
स्वम ये थे | हाथी, बैल, सिंह, लक्ष्मी, भाला युगल, चंद्रमा, सुरंज, मछली- युगल, कलेश, तालींव, समुद्र, सिंहसन, व्योमैंयान (देवतका विमान), भूमिगृह ( धरणेन्द्रका विमान), रत्नरीशि, और अ'ि 1
प्रातःकाल महारानीने इन स्वप्नोंका फल सिद्धार्थ महाराजसे पूछा । उन्होंने उनका फल कह कर रानीको सन्तुष्ट किया ।
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इसी समय कोमल हाथ-पाँववाली और गजगामिनी त्रिशलादेवीने स्वर्गके पुष्पक विमान से चय कर आये हुए एक भाग्यवान देवको अपने गर्भ-कमलमें धारण किया । इस दिन अषाढ़ सुदी छट और हस्त नक्षत्र था । इसके बाद वीरप्रभुका गर्भोत्सव करनेके लिए इन्द्र वगैरह देवता- गण गजों तथा अन्य अन्य वाहनों पर सवार हो - हो कर स्वते कुंडनपुर आये और उन्होंने वहाँ भगवानका खूब गर्भोत्सव मनाया तथा भगवानकी माताकी भारी भक्ति से पूजा की । धीरे धीरे जब गर्भके दिन पूरे हुए तब चैत सुदी तेरसके दिन त्रिशलादेवीने भगवान् वीरमभुको जन्म दिया; जैसे पूर्व दिशा सूरजको जन्म देती है । उससे दशों दिशायें उज्ज्वल हो गई तथा सारे संसारमें आनंद - मंगल छा गया । चौदस के दिन बड़ी भारी विभूतिके साथ इन्द्र आदि देवता-गण स्वर्गसे कुंडनपुर आये और वहाँसे भगवानको सुमेरु पर्वत पर ले गये । सुमेरु पर उन्होंने भगवानका बड़े भारी ठाट-बाट के साथ अभिषेक किया और शत्रुओंके दल पर विजय-लाभ करनेवाले वीरमका बर्द्धमान नाम रख उन्हें दिव्य वस्त्र और आभूषण पहिनाये ।
तीस वर्षकी अवस्था तक तो भगवान गिरस्ती रहे; पर बाद किसी वैराग्यके
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