Book Title: Oswal Vansh Sthapak Adyacharya Ratnaprabhsuriji Ka Jayanti Mahotsav
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala
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[ १५ ] जिस समय आचार्य रत्नप्रभसूरि अाबू तीर्थ से बिहार करने का विचार कर रहे थे उस समय वहां की अधिष्ठात्री देवी ने आकर सविनय प्रार्थना की कि भगवन् ! आप मरुधर में बिहार कर वहां की भद्र जनता को धर्मोपदेश प्रदान कर महान् लाभ के भागी बनें। आपश्री के गुरुवर्य ने मरुधर में विहार किया किन्तु वे श्रीमालनगर से आगे नहीं बढ़ सके। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप मरुधर में पदार्पण करें तो माशातीत सफलता प्राप्त होगी। सूरिजी ने देवी की प्रार्थना को सुनकर अपने अतज्ञान में उपयोग दिया तो ज्ञात हुआ कि मेरा विहार मरुधर में ही लाभकारी होगा क्योंकि आप चतुर्दश पूर्वधर थे और धर्म प्रचार की पद्धति आपके गुरु परम्परा की चलाई हुई एक धारा थी। जैसे प्राचार्य हरिदत्तसूरि की आज्ञा से लोहिताचार्य ने महाराष्ट्र में, केशीश्रमणाचार्य ने कई प्रान्तों में, स्वयंप्रभसूरि ने श्रीमाल व पद्मावती में अजैनों को जैन बनाकर अहिंसा का झण्डा फहराया था कहा भी है कि "वीरों की सन्तान वीर ही
होती है।"
प्राचार्य रत्नप्रभसूरि अपने ५०० शिष्यों को साथ लेकर मरुधर में विहार कर रहे थे, आपने मार्ग में किसभांति परिषह, उपसर्ग और कठिनाइयों का सामना किया वह तो उनकी प्रात्मा वा त्रिकालदर्शी ज्ञानी ही जान सकते हैं। प्रथम संकट तो यह था कि वह क्षेत्र मिथ्यात्वियों से सम्पन्न था, वाममार्गियों की प्राचल्यता थी, दूसरा सत्य धर्म के प्रति विद्वेष, तीसरा हेतु जैनधर्म के प्राचार विचारों की अनभिज्ञता, ऐसी
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