Book Title: Oswal Vansh Sthapak Adyacharya Ratnaprabhsuriji Ka Jayanti Mahotsav
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala
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पड़ा। ठीक ही है भावुक और भद्रपरिणामी जीवों पर थोडा उपदेश भी विशेष असर कर देता है ।
अब उन्हों की आत्मा का उद्गार भी सुन लीजिये इस प्रकार उस विशाल समाज पर सूरिजी के उपदेशामृत का छिटकाव होने से क्या राजा और क्या प्रजा सब के सब निस्तब्ध एक दूसरे की ओर पुतलिएँ फेरने लगे । उनके मुखों पर आश्चर्य की एक बड़ी झलक थी । उनके अधरों पर मुस्कराहट का एक सुन्दर झोंका था । उनका हृदय कमल विकसित हो उठा । उस समय हर्ष का पार नहीं था । तदन्तर राजा ने हाथ जोड़ कर विनीत शब्दों में आचार्य श्री से कहा हे भगवन् ? हम एक ओर तो विराट् विषाद सागर के मगर हो रहे हैं और साथ ही साथ दूसरी ओर हम हर्षोन्मत्त हो असीम आनन्द का अनुभव कर रहे हैं इस हर्ष और विषाद को यह कारण है कि इस अमूल्य मनुष्य जीवन रत्न को प्राप्त करके हम लोगों ने इसका 'कुछ सदुपयोग न किया हमने इस अनमोल हीरे को पत्थर समझा. हमने धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के अत्याचार कर मिथ्यात्वरूपी पाप की गहन गठरी शिर पर रख अपने आपका सर्वनाश किया है । हमने सत्य धर्म की अवज्ञा करके अपने आपको दूषित बना दियाइससे और अधिक दुःख हमें इस बात का है कि आप जैसे योगीश्वरों के इस वज्र भूमि में होने पर भी हमने सेवा उपासना का लाभ नहीं लिया । आपके चरणों की रज का स्पर्श कर कृतार्थ न हुए । अधिक शोक तो हमें इस बात का है कि हमने आपके दर्शन तक न किये इत्यादि । पर आचार्य महाराज ? हम इस दोष
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