Book Title: Oswal Vansh Sthapak Adyacharya Ratnaprabhsuriji Ka Jayanti Mahotsav
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

View full book text
Previous | Next

Page 62
________________ [ ५८ ] मतभेद जरूर है जैनाचार्य, जैन ग्रंथ, जैन पहावलियों वगैरह की मान्यता है कि वीरात् ७० वर्ष में यह घटना घटित हुई और इस समयके आस पास के कई प्राचीन ग्रन्थोंके प्रमाण भी मिलते हैं पर नई रोशनी वाले इससे सहमत नहीं हैं उनकी मान्यता इस जाति का उत्पत्ति समय विक्रम की पांचवी शताब्दी से नौवीं दशवीं शताब्दी का है और इस विषय को प्रमाणित करने को आजपर्यन्त कोई ऐतिहासिक साधन भी उपलब्ध हुए फिर भी इस विषय में मैं आपका अधिक समय लेना नहीं चाहता हूँ क्योंकि “ोसवालोत्पति विषय-शंकाओं कासमाधान” नाम की पुस्तक मैंने हाल ही में लिखी है उसको पढ़ने से आप स्वयं समझ के निर्णय कर सकेंगे। प्राचार्य रत्न प्रभसूरिने इस भूमण्डल पर विहारकर केवल जैन समाज पर ही उपकार नहीं किया पर जैनेतरों पर भी बड़ा भारी उपकार किया है श्राज जैनेतरों में मांसमदिरा भक्षण तक का अभाव है यह प्राचार्य श्रीके उपदेशका ही फल हैं इसलिये जहाँ तक सूर्य चन्द्र आकाश में प्रकाश करे, पृथ्वी सहनशीलता धारण करे, वहाँ तक हम इन महापुरुषों के परमोपकार को किसी हालत में भूल नहीं सकते। यदि भूल जावें तो हमारे जैसा कृतघ्नी संसार भर में कोई न होगा। प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने अपना सर्व श्रायुः८४वर्षों का पूर्ण कर कर्म शत्रुओं को पराजय करने में कारण भूत परम पवित्र शत्रुन्जय तीर्थ पर वीरनिर्वाण सं०८४ के माघ शुक्ल पूर्णिमा के दिन अनेक साधु साध्वी श्रावक और श्राविका के समूह के बीच आलोचना पूर्वक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 60 61 62 63 64 65 66 67 68