Book Title: Oswal Vansh Sthapak Adyacharya Ratnaprabhsuriji Ka Jayanti Mahotsav
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala
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[ ५० ] “सप्तत्या (७०) वत्सराणं चरमजिनपतेर्मुक्तजातस्य वर्षे । पञ्चम्यां शुक्लपक्षे सुरगुरु दिवसे ब्रह्मणः सन्मुहूर्ते ॥ रत्नाचार्यैः सकल गुणयुतैः सर्वसंघानुज्ञातैः। श्रीमद्वीरस्य बिम्बे भवशतमथने निर्मितेयंप्रतिष्ठा ॥१॥"
उपकेशे च कोरंटे तुल्यं श्री वीर बिंबयोः । प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या श्रीरत्नप्रभसूरिभिः ॥१॥
इस प्राचीन लेख से स्पष्ट होता है कि वीर प्रभु के निर्वाण के बाद ७० वर्ष में यह प्रतिष्ठा हुई थी बात भी ठीक है कि रत्नप्रभसूरि श्रीपार्श्वनाथ के छठे पट्टधर थे उनका समय ठीक मिलता ही है। इन मन्दिरों की प्रतिष्ठा होने से उन नूतन श्रावकोंकी श्रद्धा दृढ़ (मजबूत) हो आई और धर्म करने में वे लोग खूब आगे बढ़ने लगे। श्री संघ में अन्न धन तन सुख शान्ति तप तेजादि की सब तरह से वृद्धि होने लगी, क्यों न हो जब कि ऐसे प्रभावशाली प्राचार्य के कर कमलों से शुभ लग्न में प्रतिष्ठा हुई थी। फिरभी समर्थ पुरुषोंके सामने जितने जटिल प्रश्न उपस्थित होते हैं उतने ही अच्छे हैं क्योंकि वे उन प्रश्नों को आसानीसे हल कर सकते हैं। प्राचार्य रत्नप्रभसूरी के सामने भी एक ऐसा जटिल प्रश्न प्रा पड़ा कि जिसको हल करने में आपको बड़ा भारी परिश्रम उठाना पड़ा । पर उनका मधुर फल आज भी हम परम्परा से अानन्द पूर्वक आखादन कर शुभगति के अधिकारी बन रहे हैं।
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