Book Title: Oswal Vansh Sthapak Adyacharya Ratnaprabhsuriji Ka Jayanti Mahotsav
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

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Page 31
________________ [ २७ ) “यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते, निघर्षणच्छेदन ताप ताड़नः । तथैवधर्मो विदुषां परीक्ष्यते, श्रुतन शीलेन तपो दया गुणैः ॥ उपरोक्त महावाक्याऽनुसार जिस भांति स्वर्ण की परीक्षा कसौटी से, छेदन करने से, तपाने से. और कूटने से इस तरह चार प्रकार से होती है उसी भांतिधर्म की परीक्षा के साधन भी चार है यथा शास्त्र, शील (सदा. चार ) तप और दया । जिस धर्म में इन चारों अमूल्य रत्नों का स्थान है वही धर्म शुद्ध सनातन कहलाने का दावा कर सकता है वही धर्म सर्व माननीय और जीवों का कल्याण करने में समर्थ हो सकता है। __ खेद और महाखेद है कि कितने ही लोग धर्म के नामपर बड़ा ही अन्याय कर रहे हैं जिनको सुन और देख के हृदय एक दम कांप उठता है, दिल पर वज्र सा घात होने लग जाता है, आंखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है कि धर्म के पाखण्डियों ने अपना मतलब सिद्ध करने को और अपनी विषय वासना और विलासिता पूर्ण सामग्री को प्राप्त करने के हेतु बिचारे भोले भाले भद्र जीवों पर अन्याय करके मदिरापान मांसाहार और व्यभिचार करने में भी धर्म बतलाया है पर वास्तव में यह धर्म नहीं किन्तु सरासर अधर्म है। यह हित नहीं पर अहित का कारण है। इससे स्वर्ग, मोक्ष नहीं पर नरक प्राप्त होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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