Book Title: Niyamsar
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ 5 सभी पुराण पुरुष इसी प्रकार से धावश्यक क्रियासों को करके प्रप्रमत्त प्रादि प्रपूर्वकरण, अनिवृतिकरण, सूक्ष्मसांवराय और क्षीणकषाय गुणस्थानों को प्राप्त करके केवली हो गये हैं। इसके प्रागे अन्तिम बारहवे अधिकार में केवली भगवान का यन करके प्रन्स में निर्धारण को प्राप्त सिद्धों का वर्णन किया गया है । 1 इस प्रकार से प्राचार्य महोदय ने अपने कहे अनुसार ग्यारह अधिकार में मार्ग और बारहवें अधिकार में मार्ग के फल को कहा है। उस मार्ग के व्यवहार-निश्चय दो भेद करके चार अधिकार तक व्यवहार रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग की कहकर पुनः धागे ग्यारहवें अधिकार तक निश्वय मोक्षमार्ग को कहा है। इस तरह से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहाररत्नत्रय निश्चयरत्नत्रय के लिए साधन है। निश्वय रत्नत्रय साध्य भी है और मोक्ष के लिए साधन भी है। यहां यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रंथ मुनियों के वाधिका हो वर्णन करता है। इसमें बावकों कोई नहीं हैमति धिकार में अवश्य ही भक्ति करने के लिये श्रावक शब्द को के चरित्र लिया है । इन्हीं कृदकुद प्राचार्य ने चारित्र पाड़ में तथा रयसार में पृथक से श्रावकों के सम्यक्त्व और चारित्र का वर्णन किया है इस तरह से ग्रन्थ के रहस्य को समझ लेने के बाद प्रत्थ के किसी भी प्रकरण से अवयं की संभावना नहीं रहती है । जिन और जिनकल्पी - स्थविरकल्पो मुनि: श्री कुंदकुददेव ने अपने सभ ग्रन्थों में मोक्षमको लिया है। यद्यपि पंचास्तिकाय और प्रवचनसार में सिद्धांत कथन प्रधान है फिर भी इनमें अंतिम अधिकार में मोक्षमार्ग का प्रकरण और मुनियों को चर्या व वन ही लिया है । यह मोना मम्यग्दर्शन, ज्ञान र नात्रि की एकता है। श्रावक ग्यारह प्रतिमा तक भी चारित्र के एकदंतधारी ही कहते हैं तान भी ग-पूर्व का नहीं होता है। मुनि सकलवर के अधिकारी हैं यो कहिले कि मलवारित्र ग्रहण करने पर ही मुनिबंधोधन साधु ादि नाम प्राप्त होते हैं। देव ही ही हैं, दोघा लेते ही उन्हें मन न स परिकर रखने में न उपदेश देते है न ग्राम या नगर में या वसतिका में महामानु कभी कभी नगर में प्राकर प्रहार ग्रहण कर लेते है। किनारे, चोर प्ररण्य भादि एकांत स्थानों पर तपश्चर्या करते हुये ज्ञान प्रगट हो जाता है फिर भी वे निवास करते हैं। वे एकलविहारी ग़लत मौन वा प्रलंबन रखते हुये पर्यंत नदी के शुद्ध प्रात्मतत्व का चिंतन मोर ध्यान करते रहते

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 573