Book Title: Niyamsar
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 2
________________ प्राद्य-उपोद्घात श्री कुदकुद देव के द्वारा विरचित इस नियमसार ग्रन्थ में "मार्ग मोर मार्ग का फल" इन दो विषयों का वर्णन है । मोक्ष का उपाय मार्ग है और निर्वाण उसका फल है । मोक्ष के उपाय को अथवा अन्य के नाम की पार्षकता को बतलाते हुये श्री भाचार्यदेव ने कहा है "णियमेण प ज क तं णियमं गापरसणचरितं ।" विवरीपपरिहत्थं भणियं खतु सारमिदि वर्षणं ॥ । नियम से जो करने योग्य है वह "नियम" है, वह दर्शन, ज्ञान और पारित है । उसमें 'विपरीत-मिप्यारव का परिहार करने के लिये "सार" शब्द लगाया है। कोई लिखते हैं कि "विपरीत का अर्थ मिथ्यात्व नहीं है विकल्प अर्थात भेद रत्नत्रय है। क्योंकि इस ग्रा५ में निर्विकल्परूप निश्चय रत्नत्रय का ही वर्णन है" किन्तु यह बात गलत है । 'यदि श्री कुदकुददेव को विपरीत शब्द से भेद रत्नत्रय का परिहार करना इष्ट होता तो वे स्वयं चार अधिकार तफ इस व्यवहार रत्नत्रय का प्रतिपादन क्यों करते । देखिये, चौथी गाथा में ही उन्होंने कहा है कि "एदेसि तिण्हं पिय पत्तेयपरूपणा होई" । दर्शन मान और चरित्र इन तीनों में से प्रत्येक की प्ररूपणा करते हैं। पुन: सम्यक्त्व का लक्षण करते हुये कहा है "प्राप्त, पागम और सस्त्रों के अंदान मे गम्यस्त्व होता है। अनंता प्राचार्य ने इन तीनों का लक्षण स्वयं बताया है । पहले अधिकार में गाथा १६ नक जीवतत्व का वर्णन, द्वितीय अध्याय में पुदगल, धर्म, अधर्म, मामाश मोर पाल इनका वर्णन किया है। हरे तक व्यवहार मागे शुद्ध जीवतत्व का वर्णन करके नय.बवक्षा दिया। जारिसिया सिद्धप्पा भवल्लिार जोक्तारसा होति । जरमरणजम्ममुरका अगुणाल किया जेण ॥ ४ ॥ असरीरा आच मासा आंदिया णिम्मरना निमुद्धापा । जय लोयगी सिद्धाना गाया सिदी रोपा ॥४८॥

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