Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 38
________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ool 5000000000000000 0000000000 000000000000000000000000000 मोहनीय। दर्शन मोहनीय के तीन प्रकार और चारित्र मोहनीय के दो प्रकार होते हैं। मूल : सम्मत्तं चेव मिच्छत्वं, सम्मामिच्छत्तमेव या एयाओ तिण्णि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दंसणे||९ छायाः सम्यक्त्वं चैव मिथ्यात्वं, सम्यक्मिथ्यात्वमेव च। एतास्तिस्रः प्रकृतयः मोहनीयस्य दर्शने।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (मोहणिज्जस्स) मोहनीय संबंध के (दसणे) दर्शन में अर्थात् दर्शन मोहनीय में (एयाओ) ये (तिण्णी) तीन प्रकार की (पयडीओ) प्रकृतियाँ हैं (सम्मत्त) सम्यक्त्व मोहनीय (मिच्छत्त) मिथ्यात्व मोहनीय (य) और (सम्मामिच्छत्तमेव) सम्यक् मिथ्यात्व मोहनीय। भावार्थ : हे गौतम! दर्शन मोहनीय कर्म तीन प्रकार का होता है। एक तो सम्यक्त्व मोहनीय इसके उदय में जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति तो हो जाती है, परन्तु मोहवश ऐहिक सुख के लिए तीर्थंकरों की माला जपता रहता है। यह सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का उदय है। यह कर्म जब तक बना रहता है तब तक उस जीव को मोक्ष के सान्निध्यकारी क्षायिक गुण को रोक रखता है। दूसरा मिथ्यात्व मोहनीय है इसके उदय काल में जीव सत्य को असत्य और असत्य को सत्य समझता है और इसीलिए वह जीव चौरासी का अन्त नहीं पा सकता। चौदहवें गुणस्थान के बाद ही जीव की मुक्ति होती है पर वह मिथ्यात्व मोहनीय कर्म जीव को दूसरे गुणस्थान पर भी पैर नहीं रखने देता। तब फिर तीसरे और चौथे गुणस्थान की तो बात ही निराली है। इसका तीसरा भेद सममिथ्यात्व मोहनीय है। इसके उदयकाल में जीव सत्य असत्य दोनों को बराबर समझता है। जिससे हे गौतम! यह आत्मा न तो समदृष्टि की श्रेणी में रहता है और न पूर्ण रूप से मिथ्यात्वी ही कहा जा सकता है। अर्थात् यह कर्म जीव को तीसरे गुणस्थान के ऊपर देखने का भी मौका नहीं देता है। हे गौतम! अब हम चारित्र मोहनीय के भेद कहते हैं, सो सुनो। मूल : चरितमोहणं कम्मं दुविहं तुं विआहियं कसायमोहणिज्जंतु, नोकसायं तहेव य||१०|| छायाः चारित्रमोहनं कर्म द्विविधं तद् व्याख्यातम् / ____ कषायमोहनीयं तु नोकषायं तथैव च।।१०।। Agoo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000 000oooooor 000000000000000000 500000000000000ope निर्ग्रन्थ प्रवचन/356 3000000000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only Sboo0000000000000000 www.jainelibrary.org

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