Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 134
________________ 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः पञ्चाश्रवप्रवृत्तस्त्रिभिरगुप्त षट्सु अविरतश्च। तीव्रारम्भ परिणतः क्षुद्रः साहसिको नरः।।२।। निध्वंसपरिणामः, नृशंसोऽजितेन्द्रियः। एतद्योग समायुक्तः, कृष्णलेश्यां तु परिणमेत्।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (पंचासवप्पवत्तो) हिंसादि पाँच आश्रवों में प्रवृत्ति करने वाला (तीहिं) मन वच, काय के तीनों योगों को बुरे कामों में जाते हुए को (अगुत्तो) नहीं रोकने वाला (य) और (छसु) षट्काय जीवों की हिंसा से (अवरिओ) निवृत्त नहीं होने वाला (तिव्वारंभपरिणओ) तीव्र है आरंभ करने में लगा हुआ (खुद्दो) क्षुद्र बुद्धि वाला, (साहस्सिओ) अकार्य करने में साहसिक (निद्धंधसपरिणामो) नष्ट करने वाले हिताहित के परिणाम को और (निस्संसो) निशंक रूप से पाप करने वाला (अजिइंदिओ) इन्द्रियों को न जीतने वाला (एअजोगसमाउत्तो) इस प्रकार के आचरणों से युक्त (नरो) मनुष्य, (किण्हलेस) कृष्ण लेश्या के (परिणमे) परिणाम वाले होते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जिसकी प्रवृत्ति हिंसा, झूठ, चोरी व्यभिचार और ममता में अधिकतर फँसी हुई हो एवं मन द्वारा जो हर एक का बुरा चितवन करता हो, जो कटु और मर्म भेदी बोलता हो, जो प्रत्येक के साथ कपट का व्यवहार करने वाला हो, जो बिना प्रयोजन के भी पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति और त्रसकाय के जीवों की हिंसा से निवृत्त न हुआ हो, बहुत जीवों की हिंसा हो ऐसे महारंभ के कार्य करने में तीव्र भावना रखता हो, हमेशा जिसकी बुद्धि तुच्छ रहती हो, अकार्य करने में बिना किसी प्रकार की हिचकिचाहट के जो प्रवृत्त हो जाता हो, निःसंकोच भावों से पापाचरण करने में जो रत हो, इन्द्रियों को प्रसन्न रखने में अनेक दुष्कार्य जो करता हो, ऐसे मार्गों में जिस किसी भी आत्मा की प्रवृत्ति हो वह आत्मा कृष्ण लेश्या वाली है। ऐसी लेश्या वाला फिर चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, मर कर नीची गति में जावेगा। हे गौतम! नील लेश्या का वर्णन यों है। मूल : इस्सा अमरिए अतवो, अविज्ज माया अहीरिया। गेही पओसे य सढ़े, पमचे रसलोलुए|४|| सायगवेसए य आरंभा अविरओ, खुद्दो साहस्सिओ नरो। एअजोगसमाउत्तो, नीललेसं तुपरिणमे||५|| goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1316 1000000000000od Jain Education International For Personal & Private Use Only loo000000000000 www.jainelibrary.org

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