Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 213
________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 श्रावक चिन्तन प्रतिज्ञा OOOOOOK 8000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000 मैं श्रावक हूँ श्रमणोपासक, जिन धर्म आराधक हूँ। गृहस्थावस्था में रहकर भी, मुक्ति पथ का साधक हूँ।। श्रावक के 12 व्रतों का, मैं आराधन करता हूँ। उनमें जो अतिचार लगे, उनका आलोचन करता हूँ।। सम्यक्त्व राग द्वेष के जो हैं विजेता, अरिहंत हैं मेरे देव। सच्चे पंच महाव्रत धारी, साधु साध्वी हैं गुरुदेव।। जिन प्ररूपित तत्व रूप ही. दया मय है धर्म मेरा। यही सम्यक्त्व करूं मैं धारण, कटे चौरासी का फेरा।। प्रथम अणुव्रत जिनरपराध जीवों की मोटी, हिंसा का मैं त्याग करूं। सभी जीव हैं जीना चाहते, यही भावना मन में धरूं।। नहीं किसी को मारूं बांधू, नहीं कोई अंग छेद करूं। अतिभार आरोपण भक्त, पान विच्छेद का खेद करूं।। _ द्वितीय अणुव्रत झूठ नहीं बोलूं बिन कारण, सदा सत्य व्यवहार करूं। कन्या गौ भूमि के हेतू, नहीं झूठा व्यापार करूं। झूठी गवाही देऊं नहीं, न धरोहर रख इंकार करूं। नहीं किसी पर कलंक लगाऊ, नहीं झूठा प्रचार करूं।। तृतीय अणुव्रत कभी किसी की करुं न चोरी, चोरी का न लूं समान। कम नहीं तोलूं कम नहीं मापूं, रखू शुद्ध सही परिमाण।। नहीं मिलावट करूं कभी भी, करूं न मन को बेईमान। असली-असली/नकली-नकली, रखू सबकी अलग पहचान।। चतुर्थ अणुव्रत स्वदार संतोष करूं मैं, करूं ब्रह्मचर्य धारण। पर स्त्री वेश्या गमन करूं नहीं, समझू सबको माता बहन।। अनंग क्रीड़ा करूं नहीं, न विवाह कराऊं बिन कारण। मर्यादित हो मैथुन सेवन, पापों का हो निवारण।। पांचवा अणुव्रत जितनी आवश्यकता होवे, उतना करूं वस्तु संग्रह। भूमि घर व सोना चांदी, धन धान्य चतुष्पद परिग्रह।। परिग्रह संग्रह से ही होता, यत्र तत्र सर्वत्र विग्रह। अतः परिग्रह की मर्यादा, करके करूं शोषण भवद्रह।। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000 . निर्ग्रन्थ प्रवचन/210 00000000000000 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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